Friday, 29 September 2023

गुरुकुल में क्या पढ़ाया जाता था ??यह जान लेना अति आवश्यक है।

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◆ अग्नि विद्या ( metallergy )

◆ वायु विद्या ( flight ) 

◆ जल विद्या ( navigation ) 

◆ अंतरिक्ष विद्या ( space science ) 

◆ पृथ्वी विद्या ( environment )

◆ सूर्य विद्या ( solar study ) 

◆ चन्द्र व लोक विद्या ( lunar study ) 

◆ मेघ विद्या ( weather forecast ) 

◆ पदार्थ विद्युत विद्या ( battery ) 

◆ सौर ऊर्जा विद्या ( solar energy ) 

◆ दिन रात्रि विद्या ( day - night studies )

◆ सृष्टि विद्या ( space research ) 

◆ खगोल विद्या ( astronomy) 

◆ भूगोल विद्या (geography ) 

◆ काल विद्या ( time ) 

◆ भूगर्भ विद्या (geology and mining ) 

◆ रत्न व धातु विद्या ( gems and metals ) 

◆ आकर्षण विद्या ( gravity ) 

◆ प्रकाश विद्या ( solar energy ) 

◆ तार विद्या ( communication ) 

◆ विमान विद्या ( plane ) 

◆ जलयान विद्या ( water vessels ) 

◆ अग्नेय अस्त्र विद्या ( arms and amunition )

◆ जीव जंतु विज्ञान विद्या ( zoology botany ) 

◆ यज्ञ विद्या ( material Sc)

● वैदिक विज्ञान
( Vedic Science )

◆ वाणिज्य ( commerce ) 

◆ कृषि (Agriculture ) 

◆ पशुपालन ( animal husbandry ) 

◆ पक्षिपालन ( bird keeping ) 

◆ पशु प्रशिक्षण ( animal training ) 

◆ यान यन्त्रकार ( mechanics) 

◆ रथकार ( vehicle designing ) 

◆ रतन्कार ( gems ) 

◆ सुवर्णकार ( jewellery designing ) 

◆ वस्त्रकार ( textile) 

◆ कुम्भकार ( pottery) 

◆ लोहकार ( metallergy )

◆ तक्षक ( guarding )

◆ रंगसाज ( dying ) 

◆ आयुर्वेद ( Ayurveda )

◆ रज्जुकर ( logistics )

◆ वास्तुकार ( architect)

◆ पाकविद्या ( cooking )

◆ सारथ्य ( driving )

◆ नदी प्रबन्धक ( water management )

◆ सुचिकार ( data entry )

◆ गोशाला प्रबन्धक ( animal husbandry )

◆ उद्यान पाल ( horticulture )

◆ वन पाल ( horticulture )

◆ नापित ( paramedical )

इस प्रकार की विद्या गुरुकुल में दी जाती थीं।

इंग्लैंड में पहला स्कूल 1811 में खुला 
उस समय भारत में 732000 गुरुकुल थे।
खोजिए हमारे गुरुकुल कैसे बन्द हुए ? 

और मंथन जरूर करें वेद ज्ञान विज्ञान को चमत्कार छूमंतर व मनघड़ंत कहानियों में कैसे बदला या बदलवाया गया। वेदों के नाम पर वेद विरुद्ध हिंदी रूपांतरण करके मिलावट की ।

अपरा विधा- भेाैतिक विज्ञान को व अपरा विधा आध्यात्मिक विज्ञान को कहा गया है। इन दोनों में १६ कलाओं का ज्ञान होता है।

तैत्तिरीयोपनिषद , भ्रगुवाल्ली अनुवादक ,५, मंत्र १, में ऋषि भ्रगु ने बताया है कि-

विज्ञान॑ ब्रहोति व्यजानात्। विज्ञानाद्धयेव खल्विमानि भूतानि जायन्ते। विज्ञानेन जातानि जीवन्ति। विज्ञान॑ प्रयन्त्यभिस॑विशन्तीति।
 
अर्थ- तप के अनातर उन्होंने ( ऋषि ने) जाना कि वास्तव मैं विज्ञान से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति के बाद विज्ञान से ही जीवन जीते हैं। अंत में प्रायान करते हुए विज्ञान में ही प्रविष्ठ हो जाते हैं।

तैत्तिरीयोपनिषद ब्रह्मानन्दवल्ली अनुवादक ८, मंत्र ९ में लिखा है कि-

 विज्ञान॑ यज्ञ॑ तनुते। कर्माणि तनुतेऽपि च। विज्ञान॑ देवा: सर्वे। ब्रह्म ज्येष्ठमुपासते। विज्ञान॑ ब्रह्म चेद्वेद।

अर्थ- विज्ञान ही यज्ञों व कर्मों की वृद्धि करता है। सम्पूर्ण देवगण विज्ञान को ही  श्रेष्ठ ब्रह्म के रूप में उपासना करते हैं। जो विज्ञान को ब्रह्म स्वरूप में जानते हैं, उसी प्रकार से चिंतन में रत्त रहते हैं, तो वे  इसी शरीर से पापों से मुक्त होकर सम्पूर्ण कामनाओं की सिद्धि प्राप्त करते हैं। उस विज्ञान मय देव के अंदर ही वह आत्मा ब्रह्म रूप है। उस  विज्ञान मय आत्मा से भिन्न उसके अन्तर्गत वह आत्मा ही ब्रह्म स्वरूप है।

( संसार के सभी जीव शिल्प विज्ञान के द्वारा ही जीवन यापन करते हैं।)

★ वेद ज्ञान है शिल्प विज्ञान है

त्रिनो॑ अश्विना दि॒व्यानि॑ भेष॒जा त्रिः पार्थि॑वानि॒ त्रिरु॑ दत्तम॒द्भ्यः। 
आ॒मान॑ श॒योर्ममि॑काय सू॒नवे त्रि॒धातु॒ शर्म॑ वहतं शुभस्पती॥

ऋग्वेद (1.34.6)

हे (शुभस्पती) कल्याणकारक मनुष्यों के कर्मों की पालना करने और (अश्विना) विद्या की ज्योति को बढ़ानेवाले शिल्पि लोगो ! आप दोनों (नः) हम लोगों के लिये (अद्भ्यः) जलों से (दिव्यानि) विद्यादि उत्तम गुण प्रकाश करनेवाले (भेषजा) रसमय सोमादि ओषधियों को (त्रिः) तीनताप निवारणार्थ (दत्तम्) दीजिये (उ) और (पर्थिवानि) पृथिवी के विकार युक्त ओषधी (त्रिः) तीन प्रकार से दीजिये और (ममकाय) मेरे (सूनवे) औरस अथवा विद्यापुत्र के लिये (शंयोः) सुख तथा (ओमानम्) विद्या में प्रवेश और क्रिया के बोध करानेवाले रक्षणीय व्यवहार को (त्रिः) तीन बार कीजिये और (त्रिधातु) लोहा ताँबा पीतल इन तीन धातुओं के सहित भूजल और अन्तरिक्ष में जानेवाले (शर्म) गृहस्वरूप यान को मेरे पुत्र के लिये (त्रिः) तीन बार (वहतम्) पहुंचाइये ॥

भावार्थ- मनुष्यों को चाहिये कि जो जल और पृथिवी में उत्पन्न हुई रोग नष्ट करनेवाली औषधी हैं उनका एक दिन में तीन बार भोजन किया करें और अनेक धातुओं से युक्त काष्ठमय घर के समान यान को बना उसमें उत्तम २ जव आदि औषधी स्थापन कर देश देशांतरों में आना जाना करें।

विश्वकर्मा कुल श्रेष्ठो धर्मज्ञो वेद पारगः।
सामुद्र गणितानां च ज्योतिः शास्त्रस्त्र चैबहि।।
लोह पाषाण काष्ठानां इष्टकानां च संकले।
सूत्र प्रास्त्र क्रिया प्राज्ञो वास्तुविद्यादि पारगः।।
सुधानां चित्रकानां च विद्या चोषिठि ममगः।
वेदकर्मा सादचारः गुणवान सत्य वाचकः।। 

(शिल्प शास्त्र) अर्थववेद

भावार्थ – विश्वकर्मा वंश श्रेष्ठ हैं विश्वकर्मा वंशी धर्मज्ञ है, उन्हें वेदों का ज्ञान है। सामुद्र शास्त्र, गणित शास्त्र, ज्योतिष और भूगोल एवं खगोल शास्त्र में ये पारंगत है। एक शिल्पी लोह, पत्थर, काष्ठ, चान्दी, स्वर्ण आदि धातुओं से चित्र विचित्र वस्तुओं सुख साधनों की रचना करता है। वैदिक कर्मो में उन की आस्था है, सदाचार और सत्यभाषण उस की विशेषता है।

 यजुर्वेद के अध्याय २९ के मंत्र 58 के ऋषि जमदाग्नि है इसमे बार्हस्पत्य शिल्पो वैश्वदेव लिखा है। वैश्वदेव में सभी देव समाहित है।

शुल्वं यज्ञस्य साधनं शिल्पं रूपस्य साधनम् ॥

(वास्तुसूत्रोपनिषत्/चतुर्थः प्रपाठकः - ४.९ ॥)

अर्थात - शुल्ब सूत्र यज्ञ का साधन है तथा शिल्प कौशल उसके रूप का साधन है।

शिल्प और कुशलता में बहुत बड़ा अन्तर है ( एक शिल्प विद्या द्वारा किसी प्रारूप को बनाना और दूसरा कुशलता पूर्वक उसका उपयोग करना , ये दोनो अलग अलग है 

कुशलता 

जैसे शिल्प द्वारा निर्मित ओजारो से नाई कुशलता से कार्य करता है , शिल्पी द्वारा निर्मित यातायन के साधन को एक ड्राईवर कुशलता पूर्वक चलता है आदि 

सामान्यतः जिस कर्म के द्वारा विभिन्न पदार्थों को मिलाकर एक नवीन पदार्थ या स्वरूप तैयार किया जाता है उस कर्म को शिल्प कहते हैं । ( उणादि० पाद०३, सू०२८ ) किंतु विशेष रूप निम्नवत है

१- जो प्रतिरूप है उसको शिल्प कहते हैं "यद् वै प्रतिरुपं तच्छिल्पम" (शतपथ०- का०२/१/१५ ) 

२- अपने आप को शुद्ध करने वाले कर्म को शिल्प कहते हैं 

(क)"आत्मा संस्कृतिर्वै शिल्पानि: " (गोपथ०-उ०/६/७)

(ख) "आत्मा संस्कृतिर्वी शिल्पानि: " (ऐतरेय०-६/२७) 

३- देवताओं के चातुर्य को शिल्प कहकर सीखने का निर्देश है (यजुर्वेद ४ / ९, म० भा० )

 ४- शिल्प शब्द रूप तथा कर्म दोनों अर्थों में आया है -

(क)"कर्मनामसु च " (निघन्टु २ / १ )

(ख) शिल्पमिति रुप नाम सुपठितम्" (निरुक्त ३/७)

५ - शिल्प विद्या आजीविका का मुख्य साधन है। (मनुस्मृति १/६०, २/२४, व महाभारत १/६६/३३ )

६- शिल्प कर्म को यज्ञ कर्म कहा गया है।

( वाल्मि०रा०, १/१३/१६, व संस्कार विधि, स्वा० द० सरस्वती व स्कंद म०पु० नागर६/१३-१४ )

।।पांचाल_ब्राह्मण।।

शिल्पी ब्राह्मण नामान: पञ्चाला परि कीर्तिता:।
(शैवागम अध्याय-७)
अर्थात-पांच प्रकार के श्रेष्ठ शिल्पों के कर्ता होने से शिल्पी ब्राह्मणों का नाम पांचाल है।
 
पंचभि: शिल्पै:अलन्ति भूषयन्ति जगत् इति पञ्चाला:। (विश्वकर्म वंशीय ब्राह्मण व्यवस्था-भाग-३, पृष्ठ-७६-७७)
अर्थात- पांच प्रकार के शिल्पों से जगत को भूषित करने वाले शिल्पि ब्राह्मणों को पांचाल कहते हैं।

ब्रह्म विद्या ब्रह्म ज्ञान  (ब्रह्मा को जानने वाला) जो की चारो वेदों में प्रमाणित है जो वैदिक गुरुकुलो में शिक्षा दी जाती थी ये (metallergy) जिसे अग्नि विद्या या लौह विज्ञान (धातु कर्म) कहते है , ये वेदों में सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मकर्म ब्रह्मज्ञान है पृथ्वी के गर्भ से लौह निकालना और उसका चयन करना की किस लोहे से , या किस लोहे के स्वरूप से,  सुई से लेकर हवाई  जहाज, युद्ध पोत  जलयान, थलयान, इलेक्ट्रिक उपकरण , इलेक्ट्रॉनिक उपकरण , रक्षा करने के आधुनिक हथियार , कृषि के आधुनिक उपकरण , आधुनिक सीएनसी मशीन, सिविल इन्फ्रास्ट्रक्चर सब (metallergy) अग्नि विद्या ऊर्फ लोहा विज्ञान की देन है हमारे वैदिक ऋषि सब वैज्ञानिक कार्य करते थे वेदों में इन्हीं विश्वकर्मा शिल्पियों को ब्राह्मण की उपाधि मिली है जो वेद ज्ञान विज्ञान से ही संभव है चमत्कारों से नहीं वेद ज्ञान विज्ञान से राष्ट्र निर्माण होता है  पाखण्ड से नहीं, इसी को विज्ञान कहा गया है बिना शिल्प विज्ञान के हम सृष्टि विज्ञान की कल्पना भी नहीं कर सकते इसलिए सभी विज्ञानिंक कार्य इन्ही सुख साधनों से संभव है इसलिए वैदिक शिल्पी विश्वकर्मा ऋषियों द्वारा भारत की सनातन संस्कृति विश्वगुरु कहलाई
भगवान (विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मणों) ने अपने रचनात्मक कार्यों से इस ब्रह्मांड का प्रसार किया है। जो सभी वैदिक ग्रंथों में प्रमाणित है

Tuesday, 26 September 2023

यह 15 मंत्र जो हर हिंदू को सीखना और बच्चों को सिखाना चाहिए...


1. Mahadev

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे,
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् 
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् 

2. Shri Ganesha

वक्रतुंड महाकाय,
सूर्य कोटि समप्रभ
निर्विघ्नम कुरू मे देव,
सर्वकार्येषु सर्वदा

3. Shri hari Vishnu

मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
मङ्गलम् गरुणध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
मङ्गलाय तनो हरि

4. Shri Brahma ji

ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा,
नमस्ते परमात्ने ।
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं,
सदुयाय नमो नम:

5. Shri Krishna

वसुदेवसुतं देवं,
कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं,
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।

6. Shri Ram

श्री रामाय रामभद्राय,
रामचन्द्राय वेधसे 
रघुनाथाय नाथाय,
सीताया पतये नमः

7. Maa Durga

ॐ जयंती मंगला काली,
भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री,
स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते

8. Maa Mahalakshmi

ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो,
धन धान्यः सुतान्वितः 
मनुष्यो मत्प्रसादेन,
भविष्यति न संशयःॐ

9. Maa Saraswathi

ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं,
वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि,
सिद्धिर्भवतु मे सदा 

10. Maa Mahakali

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,
हलीं ह्रीं खं स्फोटय,
क्रीं क्रीं क्रीं फट 

11. Hanuman ji

मनोजवं मारुततुल्यवेगं,
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
श्रीरामदूतं शरणं प्रपघे

12. Shri Shanidev

ॐ नीलांजनसमाभासं,
रविपुत्रं यमाग्रजम ।
छायामार्तण्डसम्भूतं,
तं नमामि शनैश्चरम् 

13. Shri Kartikeya

ॐ शारवाना-भावाया नम:,
ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा ,
वल्लीईकल्याणा सुंदरा
देवसेना मन: कांता,
कार्तिकेया नामोस्तुते 

14. Kaal Bhairav ji

ॐ ह्रीं वां बटुकाये,
क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये,
कुरु कुरु बटुकाये,
ह्रीं बटुकाये स्वाहा

15. Gayatri Mantra

ॐ भूर्भुवः स्वः,
तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्

परिवार और बच्चों को भी सिखायें

जय श्रीकृष्ण, जय श्रीराम, जय गोविंदा ✨🙏🕉️💖
B

1. Mahadev

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे,
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् 
उर्वारुकमिव बन्धनान्
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् 

2. Shri Ganesha

वक्रतुंड महाकाय,
सूर्य कोटि समप्रभ
निर्विघ्नम कुरू मे देव,
सर्वकार्येषु सर्वदा

3. Shri hari Vishnu

मङ्गलम् भगवान विष्णुः,
मङ्गलम् गरुणध्वजः।
मङ्गलम् पुण्डरी काक्षः,
मङ्गलाय तनो हरि

4. Shri Brahma ji

ॐ नमस्ते परमं ब्रह्मा,
नमस्ते परमात्ने ।
निर्गुणाय नमस्तुभ्यं,
सदुयाय नमो नम:

5. Shri Krishna

वसुदेवसुतं देवं,
कंसचाणूरमर्दनम्।
देवकी परमानन्दं,
कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम।

6. Shri Ram

श्री रामाय रामभद्राय,
रामचन्द्राय वेधसे 
रघुनाथाय नाथाय,
सीताया पतये नमः

7. Maa Durga

ॐ जयंती मंगला काली,
भद्रकाली कपालिनी ।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री,
स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु‍ते

8. Maa Mahalakshmi

ॐ सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो,
धन धान्यः सुतान्वितः 
मनुष्यो मत्प्रसादेन,
भविष्यति न संशयःॐ

9. Maa Saraswathi

ॐ सरस्वति नमस्तुभ्यं,
वरदे कामरूपिणि।
विद्यारम्भं करिष्यामि,
सिद्धिर्भवतु मे सदा 

10. Maa Mahakali

ॐ क्रीं क्रीं क्रीं,
हलीं ह्रीं खं स्फोटय,
क्रीं क्रीं क्रीं फट 

11. Hanuman ji

मनोजवं मारुततुल्यवेगं,
जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं,
श्रीरामदूतं शरणं प्रपघे

12. Shri Shanidev

ॐ नीलांजनसमाभासं,
रविपुत्रं यमाग्रजम ।
छायामार्तण्डसम्भूतं,
तं नमामि शनैश्चरम् 

13. Shri Kartikeya

ॐ शारवाना-भावाया नम:,
ज्ञानशक्तिधरा स्कंदा ,
वल्लीईकल्याणा सुंदरा
देवसेना मन: कांता,
कार्तिकेया नामोस्तुते 

14. Kaal Bhairav ji

ॐ ह्रीं वां बटुकाये,
क्षौं क्षौं आपदुद्धाराणाये,
कुरु कुरु बटुकाये,
ह्रीं बटुकाये स्वाहा

15. Gayatri Mantra

ॐ भूर्भुवः स्वः,
तत्सवितुर्वरेण्यम्
भर्गो देवस्य धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्

परिवार और बच्चों को भी सिखायें

जय श्रीकृष्ण, जय श्रीराम, जय गोविंदा ✨🙏🕉️💖
B

Monday, 25 September 2023

भगवान शिव के 19 अवतार


भगवान शिव के 19 अवतार आइये जाने

शिव महापुराण में भगवान शिव के अनेक अवतारों का वर्णन मिलता है, लेकिन बहुत ही कम लोग इन अवतारों के बारे में जानते हैं। धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान शिव के 19 अवतार हुए थे। आइए जानें शिव के 19 अवतारों के बारे में

1. वीरभद्र अवतार -

भगवान शिव का यह अवतार तब हुआ था, जब दक्ष द्वाराआयोजित यज्ञ में माता सती ने अपनी देह का त्याग किया था। जब भगवान शिव को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने क्रोध में अपने सिर से एक जटा उखाड़ी और उसे रोषपूर्वक पर्वत के ऊपर पटक दिया। उस जटा के पूर्वभाग से महाभंयकर वीरभद्र प्रगट हुए। शिव के इस अवतार ने दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया और दक्ष का सिर काटकर उसे मृत्युदंड दिया।

2. पिप्पलाद अवतार -

मानव जीवन में भगवान शिव के पिप्पलाद अवतार का बड़ा महत्व है। शनि पीड़ा का निवारण पिप्पलाद की कृपा से ही संभव हो सका। कथा है कि पिप्पलाद ने देवताओं से पूछा- क्या कारण है कि मेरे पिता दधीचि जन्म से पूर्व ही मुझे छोड़कर चले गए? देवताओं ने बताया शनिग्रह की दृष्टि के कारण ही ऐसा कुयोग बना। पिप्पलाद यह सुनकर बड़े क्रोधित हुए। उन्होंने शनि को नक्षत्र मंडल से गिरने का श्राप दे दिया। श्राप के प्रभाव से शनि उसी समय आकाश से गिरने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर पिप्पलाद ने शनि को इस बात पर क्षमा किया कि शनि जन्म से लेकर 16 साल तक की आयु तक किसी को कष्ट नहीं देंगे। तभी से पिप्पलाद का स्मरण करने मात्र से शनि की पीड़ा दूर हो जाती है। शिव महापुराण के अनुसार स्वयं ब्रह्मा ने ही शिव के इस अवतार का नामकरण किया था।

3- नंदी अवतार

भगवान शंकर सभी जीवों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भगवान शंकर का नंदीश्वर अवतार भी इसी बात का
अनुसरण करते हुए सभी जीवों से प्रेम का संदेश देता है। नंदी (बैल) कर्म का प्रतीक है, जिसका अर्थ है कर्म ही जीवन का मूल मंत्र है। इस अवतार की कथा इस प्रकार है- शिलाद मुनि ब्रह्मचारी थे। वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने शिलाद से संतान उत्पन्न करने को कहा। शिलाद ने अयोनिज और मृत्युहीन संतान की कामना से भगवान शिव की तपस्या की। तब भगवान शंकर ने स्वयं शिलाद के यहां पुत्र रूप में जन्म लेने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को भूमि से उत्पन्न एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। भगवान शंकर ने नंदी को अपना गणाध्यक्ष बनाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ।

4. भैरव अवतार

शिव महापुराण में भैरव को परमात्मा शंकर का पूर्ण रूप बताया गया है। एक बार भगवान शंकर की माया से प्रभावित होकर ब्रह्मा व विष्णु स्वयं को श्रेष्ठ मानने
लगे। तब वहां तेज-पुंज के मध्य एक पुरुषाकृति दिखलाई पड़ी। उन्हें देखकर ब्रह्माजी ने कहा- चंद्रशेखर तुम मेरे पुत्र हो। अत: मेरी शरण में आओ। ब्रह्मा की ऐसी बात सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आ गया। उन्होंने उस पुरुषाकृति से कहा- काल की भांति शोभित होने के कारण आप साक्षात कालराज हैं। भीषण होने से भैरव हैं। भगवान शंकर से इन वरों को प्राप्त कर कालभैरव ने अपनी अंगुली के नाखून से ब्रह्मा के पांचवे सिर को काट दिया। ब्रह्मा का पांचवा सिर काटने के कारण भैरव ब्रह्महत्या के पाप से दोषी हो गए। काशी में भैरव को ब्रह्महत्या के पाप से मुक्ति मिली। काशीवासियों के लिए भैरव की भक्ति अनिवार्य बताई गई है।

5- अश्वत्थामा

महाभारत के अनुसार पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा काल, क्रोध, यम व भगवान शंकर के अंशावतार थे। आचार्य द्रोण ने भगवान शंकर को पुत्र रूप में पाने की लिए घोर तपस्या की थी और भगवान शिव ने उन्हें वरदान दिया था कि वे उनके पुत्र के रूप मेें अवतीर्ण होंगे। समय आने पर सवन्तिक रुद्र ने अपने अंश से द्रोण के बलशाली पुत्र अश्वत्थामा के रूप में अवतार लिया। ऐसी मान्यता है कि अश्वत्थामा अमर हैं तथा वह आज भी धरती पर ही निवास करते हैं। शिवमहापुराण (शतरुद्रसंहिता-37) के अनुसार अश्वत्थामा आज भी जीवित हैं और वे गंगा के किनारे निवास करते हैं किंतु उनका निवास कहां हैं, यह नहीं बताया गया है।

6. शरभावतार -

भगवान शंकर का छटा अवतार है शरभावतार। शरभावतार में भगवान शंकर का स्वरूप आधा मृग (हिरण) तथा शेष शरभ पक्षी (पुराणों में वर्णित आठ पैरों वाला जंतु जो शेर से भी शक्तिशाली था) का था। इस अवतार में भगवान शंकर ने नृसिंह भगवान की क्रोधाग्नि को शांत किया था। लिंगपुराण में शिव के शरभावतार की कथा है, उसक अनुसार-हिरण्यकशिपु का वध करने के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंहावतार लिया था। हिरण्यकशिपु के वध के पश्चात भी जब भगवान नृसिंह का क्रोध शांत नहीं हुआ तो देवता शिवजी के पास पहुंचे तब भगवान शिव ने शरभावतार लिया और वे इसी रूप में भगवान नृसिंह के पास पहुंचे तथा उनकी स्तुति की,
लेकिन नृसिहं की क्रोधाग्नि शांत नहीं हुई। यह देखकर शरभ रूपी भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर ले उड़े। तब कहीं जाकर भगवान नृसिंह की क्रोधाग्नि शांत हुई। उन्होंने शरभावतार से क्षमा याचना कर अति विनम्र भाव से उनकी स्तुति की।

7. गृहपति अवतार- 

भगवान शंकर का सातवां अवतार है गृहपति। इसकी कथा इस प्रकार है- नर्मदा के तट पर धर्मपुर नाम का एक नगर था। वहां विश्वानर नाम के एक मुनि तथा उनकी पत्नी शुचिष्मती रहती थीं। शुचिष्मती ने बहुत काल तक नि:संतान रहने पर एक दिन अपने पति से शिव के समान पुत्र प्राप्ति की इच्छा की। पत्नी की अभिलाषा पूरी करने के लिए मुनि विश्वनार काशी आ गए। यहां उन्होंने घोर तप द्वारा भगवान शिव के वीरेश लिंग की आराधना की। एक दिन मुनि को वीरेश लिंग के मध्य एक बालक दिखाई दिया..मुनि ने बालरूपधारी शिव की पूजा की। उनकी पूजा से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने शुचिष्मति के गर्भ से अवतार लेने का वरदान दिया। कालांतर में शुचिष्मति गर्भवती हुई और भगवान शंकर शुचिष्मती के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए। कहते हैं, पितामह ब्रह्मा ने ही उस बालक का नाम गृहपति रखा था।

8. ऋषि दुर्वासा -

भगवान शंकर के विभिन्न अवतारों में ऋषि दुर्वासा का
अवतार भी प्रमुख है। धर्म ग्रंथों के अनुसार सती अनुसूइया के पति महर्षि अत्रि ने ब्रह्मा के निर्देशानुसार पत्नी सहित ऋक्षकुल पर्वत पर पुत्रकामना से घोर तप किया। उनके तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों उनके आश्रम पर आए। उन्होंने कहा- हमारे अंश से तुम्हारे तीन पुत्र होंगे, जो त्रिलोकी में विख्यात तथा माता-पिता का यश बढ़ाने वाले होंगे। समय आने पर ब्रह्माजी के अंश से चंद्रमा उत्पन्न हुए। विष्णु के अंश से श्रेष्ठ संन्यास पद्धति को प्रचलित करने वाले दत्तात्रेय उत्पन्न हुए और रुद्र के अंश से मुनिवर दुर्वासा ने जन्म लिया।

9. हनुमान -

भगवान शिव का हनुमान अवतार सभी अवतारों में श्रेष्ठ माना गया है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक वानर का रूप धरा था। शिवमहापुराण के अनुसार देवताओं और दानवों को अमृत बांटते हुए विष्णुजी के मोहिनी रूप को देखकर लीलावश शिवजी ने कामातुर होकर अपना वीर्यपात कर दिया। सप्तऋषियों ने उस वीर्य को कुछ पत्तों में संग्रहित कर लिया। समय आने पर सप्तऋषियों ने भगवान शिव के वीर्य को वानरराज केसरी की पत्नी अंजनी के कान के माध्यम से गर्भ में स्थापित कर दिया, जिससे अत्यंत तेजस्वी एवं प्रबल पराक्रमी श्री हनुमानजी उत्पन्न हुए।

10. वृषभ अवतार -

भगवान शंकर ने विशेष परिस्थितियों में वृषभ अवतार
लिया था। इस अवतार में भगवान शंकर ने विष्णु पुत्रों का संहार किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार जब भगवान विष्णु दैत्यों को मा रने पाताल लोक गए तो उन्हें वहां बहुत सी चंद्रमुखी स्त्रियां दिखाई पड़ी। विष्णु ने उनके साथ रमण करके बहुत से पुत्र उत्पन्न किए। विष्णु के इन पुत्रों ने पाताल से पृथ्वी तक बड़ा उपद्रव किया। उनसे घबराकर ब्रह्माजी ऋषिमुनियों को लेकर शिवजी के पास गए और रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगे। तब भगवान शंकर ने वृषभ रूप धारण कर विष्णु पुत्रों का संहार किया।

11. यतिनाथ अवतार -

भगवान शंकर ने यतिनाथ अवतार लेकर अतिथि के महत्व का प्रतिपादन किया था। उन्होंने इस अवतार में अतिथि बनकर भील दम्पत्ति की परीक्षा ली थी, जिसके कारण भील दम्पत्ति को अपने प्राण गवाने पड़े। धर्म ग्रंथों के अनुसार अर्बुदाचल पर्वत के समीप शिवभक्त आहुक-आहुका भील दम्पत्ति रहते थे। एक बार भगवान शंकर यतिनाथ के वेष में उनके घर आए। उन्होंने भील दम्पत्ति के घर रात व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। आहुका ने अपने पति को गृहस्थ की मर्यादा का स्मरण कराते हुए स्वयं धनुषबाण लेकर बाहर रात बिताने और यति को घर में विश्राम करने देने का प्रस्ताव रखा। इस तरह आहुक धनुषबाण लेकर बाहर चला गया। प्रात:काल आहुका और यति ने देखा कि वन्य प्राणियों ने आहुक का मा   र डाला है। इस पर यतिनाथ बहुत दु:खी हुए। तब आहुका ने उन्हें शांत करते हुए कहा कि आप शोक न करें। अतिथि सेवा में प्राण विसर्जन धर्म है और उसका पालन कर हम धन्य हुए हैं। जब आहुका अपने पति की चिताग्नि में जलने लगी तो शिवजी ने उसे दर्शन देकर अगले जन्म में पुन: अपने पति से मिलने का वरदान दिया।

12. कृष्णदर्शन अवतार -

भगवान शिव ने इस अवतार में यज्ञ आदि धार्मिक कार्यों के महत्व को बताया है। इस प्रकार यह अवतार पूर्णत: धर्म का प्रतीक है। धर्म ग्रंथों के अनुसार इक्ष्वाकुवंशीय श्राद्धदेव की नवमी पीढ़ी में राजा नभग का जन्म हुआ। विद्या-अध्ययन को गुरुकुल गए नभग जब बहुत दिनों तक न लौटे तो उनके भाइयों ने राज्य का विभाजन आपस में कर लिया। नभग को जब यह बात ज्ञात हुई तो वह अपने पिता के पास गए। पिता ने नभग से कहा कि वह यज्ञ परायण ब्राह्मणों के मोह को दूर करते हुए उनके यज्ञ को सम्पन्न करके, उनके धन को प्राप्त करे। तब नभग ने यज्ञभूमि में पहुंचकर वैश्य देव सूक्त के स्पष्ट उच्चारण द्वारा यज्ञ संपन्न कराया। अंगारिक ब्राह्मण यज्ञ अवशिष्ट धन नभग को देकर स्वर्ग को चले गए। उसी समय शिवजी कृष्णदर्शन रूप में प्रकट होकर बोले कि यज्ञ के अवशिष्ट धन पर तो उनका अधिकार है। विवाद होने पर कृष्ण दर्शन रूपधारी शिवजी ने उसे अपने पिता से ही निर्णय कराने को कहा। नभग के पूछने पर श्राद्धदेव ने कहा- वह पुरुष शंकर भगवान हैं। यज्ञ में अवशिष्ट वस्तु उन्हीं की है। पिता की बातों को मानकर नभग ने शिवजी की स्तुति की।

13. अवधूत अवतार -

भगवान शंकर ने अवधूत अवतार लेकर इंद्र के अंहकार को चूर किया था। धर्म ग्रंथों के अनुसार एक समय बृहस्पति और अन्य देवताओं को साथ लेकर इंद्र शंकर जी के दर्शनों के लिए कैलाश पर्वत पर गए। इंद्र की परीक्षा लेने के लिए शंकरजी ने अवधूत रूप धारण कर उनका मार्ग रोक लिया। इंद्र ने उस पुरुष से अवज्ञापूर्वक बार-बार उसका परिचय पूछा तो भी वह मौन रहा। इस पर क्रुद्ध होकर इंद्र ने ज्यों ही अवधूत पर प्रहार करने के लिए वज्र छोडऩा चाहा, वैसे ही उनका हाथ स्तंभित हो गया। यह देखकर बृहस्पति ने शिवजी को पहचान कर अवधूत की बहुविधि स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर शिवजी ने इंद्र को क्षमा कर दिया।

14. भिक्षुवर्य अवतार -

भगवान शंकर देवों के देव हैं। संसार में जन्म लेने वाले हर प्राणी के जीवन के रक्षक भी हैं। भगवान शंकर काभिक्षुवर्य अवतार यही संदेश देता है। धर्म ग्रंथों के अनुसार विदर्भ नरेश सत्यरथ को शत्रुओं ने मार डाला। उसकी गर्भवती पत्नी ने शत्रुओं से छिपकर अपने प्राण बचाए। समय आने पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया। रानी जब जल पीने के लिए सरोवर गई तो उसे घडिय़ाल ने अपना आहार बना लिया। तब वह बालक भूख-प्यास से तड़पने लगा। इतने में ही शिवजी की प्रेरणा से एक भिखारिन वहां पहुंची।तब शिवजी ने भिक्षुक का रूप धर उस भिखारिन को बालक का परिचय दिया और उसके पालन-पोषण का निर्देश दिया तथा यह भी कहा कि यह बालक विदर्भ
नरेश सत्यरथ का पुत्र है। यह सब कह कर भिक्षुक रूपधारी शिव ने उस भिखारिन को अपना वास्तविक रूप दिखाया। शिव के आदेश अनुसार भिखारिन ने उस बालक का पालन-पोषण किया। बड़ा होकर उस बालक ने शिवजी की कृपा से अपने दुश्मनों को हराकर पुन: अपना राज्य प्राप्त किया।

15. सुरेश्वर अवतार -

भगवान शंकर का सुरेश्वर (इंद्र) अवतार भक्त के प्रति उनकी प्रेमभावना को प्रदर्शित करता है। इस अवतार में भगवान शंकर ने एक छोटे से बालक उपमन्यु की भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपनी परम भक्ति और अमर पद का वरदान दिया। धर्म ग्रंथों के अनुसार व्याघ्रपाद का पुत्र उपमन्यु अपने मामा के घर पलता था। वह सदा दूध की इच्छा से व्याकुल रहता था। उसकी मां ने उसे अपनी अभिलाषा पूर्ण करने के लिए शिवजी की शरण में जाने को कहा। इस पर उपमन्यु वन में जाकर ऊँ नम: शिवाय का जप करने लगा। शिवजी ने सुरेश्वर (इंद्र) का रूप धारण कर उसे दर्शन दिया और शिवजी की अनेक प्रकार से निंदा करने लगा। इस पर उपमन्यु क्रोधित होकर इंद्र को मारने के लिए खड़ा हुआ। उपमन्यु को अपने में दृढ़ शक्ति और अटल विश्वास देखकर शिवजी ने उसे अपने वास्तविक रूप के दर्शन कराए तथा क्षीरसागर के समान एक अनश्वर सागर उसे प्रदान किया। उसकी प्रार्थना पर कृपालु शिवजी ने उसे परम भक्ति का
पद भी दिया।

16- किरात अवतार

किरात अवतार में भगवान शंकर ने पाण्डुपुत्र अर्जुन की वीरता की परीक्षा ली थी। महाभारत के अनुसार
कौरवों ने छल-कपट से पाण्डवों का राज्य हड़प लिया व पाण्डवों को वनवास पर जाना पड़ा। वनवास के दौरान जब अर्जुन भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए तपस्या कर रहे थे, तभी दुर्योधन द्वारा भेजा हुआ मूड़ नामक दैत्य अर्जुन को मा  रने के लिए शूकर( सु अर) का रूप धारण कर वहां पहुंचा। अर्जुन ने शूकर पर अपने बाण से प्रहार किया, उसी समय भगवान शंकर ने भी किरात वेष धारण कर उसी शूकर पर बाण चलाया। शिव कीमाया के कारण अर्जुन उन्हें पहचान न पाए और शूकर का वध उसके बाण से हुआ है, यह कहने लगे। इस पर दोनों में विवाद हो गया। अर्जुन ने किरात वेषधारी शिव से युद्ध किया। अर्जुन की वीरता देख भगवान शिव प्रसन्न हो गए और अपने वास्तविक स्वरूप में आकर अर्जुन को कौरवों पर विजय का आशीर्वाद दिया।

17. सुनटनर्तक अवतार -

पार्वती के पिता हिमाचल से उनकी पुत्री का हाथ
मागंने के लिए शिवजी ने सुनटनर्तक वेष धारण किया था..हाथ में डमरू लेकर शिवजी नट के रूप में हिमाचल के घर पहुंचे और नृत्य करने लगे। नटराज शिवजी ने इतना सुंदर और मनोहर नृत्य किया कि सभी प्रसन्न हो गए। जब हिमाचल ने नटराज को भिक्षा मांगने को कहा तो नटराज शिव ने भिक्षा में पार्वती को मांग लिया। इस पर हिमाचलराज अति क्रोधित हुए। कुछ देर बाद नटराज वेषधारी शिवजी पार्वती को अपना रूप दिखाकर स्वयं चले गए। उनके जाने पर मैना और हिमाचल को दिव्य ज्ञान हुआ और उन्होंने पार्वती को शिवजी को देने का निश्चय किया

18- ब्रह्मचारी अवतार

दक्ष के यज्ञ में प्राण त्यागने के बाद जब सती ने हिमालय के घर जन्म लिया तो शिवजी को पति रूप में पाने के लिए घोर तप किया। पार्वती की परीक्षा लेने के लिए शिवजी ब्रह्मचारी का वेष धारण कर उनके पास पहुंचे। पार्वती ने ब्रह्मचारी को देख उनकी विधिवत पूजा की। जब ब्रह्मचारी ने पार्वती से उसके तप का उद्देश्य पूछा और जानने पर शिव की निंदा करने लगे तथा उन्हें श्मशानवासी व कापालिक भी कहा। यह सुन पार्वती को बहुत क्रोध हुआ। पार्वती की भक्ति व प्रेम को देखकर शिव ने उन्हें अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया। यह देख पार्वती अति प्रसन्न हुईं।

19- यक्ष अवतार

यक्ष अवतार शिवजी ने देवताओं के अनुचित और मिथ्या अभिमान को दूर करने के लिए धारण किया था धर्म ग्रंथों के अनुसार देवता व असुर द्वारा किए गए समुद्रमंथन के दौरान जब भयंकर विष निकला तो भगवान शंकर ने उस विष को ग्रहण कर अपने कण्ठ में रोक लिया। इसके बाद अमृत कलश निकला। अमृतपान करने से सभी देवता अमर तो हो गए साथ ही उनहें अभिमान भी हो गया कि वे सबसे बलशाली हैं। देवताओं के इसी अभिमान को तोडऩे के लिए शिवजी ने यक्ष का रूप धारण किया व देवताओं के आगे एक तिनका रखकर उसे काटने को कहा। अपनी पूरी शक्ति लगाने पर भी देवता उस तिनके को काट नहीं पाए। तभी आकाशवाणी हुई कि यह यक्ष सब गर्वों के विनाशक शंकर भगवान हैं। सभी देवताओं ने भगवान शंकर की स्तुति की तथा अपने अपराध के लिए क्षमा केमांगी...

मेरा आप सभी मित्रो से निवेदन है की आप इस मेसेज को अधिक से अधिक आगे भेजकर अपने हिन्दू भाइयो को अपने संस्कृति का ज्ञान प्रदान...

जय सनातन धर्म, ऊं नम शिवाय, हर -हर महादेव ✨🔱💖😌

आर्य भट्ट ने शून्य की खोज की तो रामायण में रावण के दस सर की गणना कैसे की गयी..?



रावण के दस सिर कैसे हो सकते हैं,जबकि शून्य की खोज आर्यभट्ट ने की..?? कुछ लोग हिन्दू धर्म व रामायण  महाभारत गीता को काल्पनिक दिखाने के लिए यह प्रश्न करते है कि जब आर्यभट्ट ने लगभग 6 वी शताब्दी मे (शून्य/जीरो) की खोज की तो आर्यभट्ट की खोज से लगभग 5000 हजार वर्ष पहले रामायण मे रावण के 10 सिर की गिनती कैसे की गई और महाभारत मे कौरवो की 100 की संख्या की गिनीती कैसे की गई..जबकि उस समय लोग (जीरो) को जानते ही नही थे..तो लोगो ने गिनती को कैसे गिना...अब मै इस प्रश्न का उत्तर दे रही हुं...कृपया इसे पूरा ध्यान से पढे..आर्यभट्ट से पहले संसार 0(शुन्य) को नही जानता था..आर्यभट्ट ने ही (शुन्य / जीरो) की खोज की, यह एक सत्य है..लेकिन आर्यभट्ट ने 0( जीरो ) की खोज अंको मे की थी, शब्दों में खोज नहीं की थी, उससे पहले 0 (अंक को) शब्दो मे शुन्य कहा जाता था..उस समय मे भी हिन्दू धर्म ग्रंथो मे जैसे शिव पुराण,स्कन्द पुराण आदि मे आकाश को *शुन्य* कहा गया है..यहाँ पे शुन्य का मतलव अनंत से होता है...लेकिन रामायण व महाभारत काल मे गिनती अंको मे न होकर शब्दो मे होता था,और वह भी संस्कृत मे उस समय 1,2,3,4,5,6,7,8, 9,10 अंक के स्थान पे शब्दो का प्रयोग होता था वह भी संस्कृत के शव्दो का प्रयोग होता था...जैसे -

1 = प्रथम

2 = द्वितीय

3 = तृतीय

4 = चतुर्थ

5 = पंचम

6 = षष्टं

7 = सप्तम

8 = अष्टम

9 = नवंम

10 = दशम 

दशम = दस

यानी दशम मे दस तो आ गया,लेकिन अंक का
0 (जीरो/शुन्य ) नही आया,‍‍रावण को दशानन कहा जाता है..दशानन मतलव दश+आनन =दश सिर वाला
अब देखो रावण के दस सिर की गिनती तो हो गई लेकिन अंको का 0 (जीरो) नही आया..इसी प्रकार महाभारत काल मे *संस्कृत* शब्द मे कौरवो की सौ की संख्या को शत-शतम बताया गया शत् एक संस्कृत का शब्द है,जिसका हिन्दी मे अर्थ सौ (100) होता है 
सौ(100) "को संस्कृत मे शत् कहते है  शत = सौ
इस प्रकार महाभारत काल मे कौरवो की संख्या गिनने मे सौ हो गई लेकिन इस गिनती मे भी अंक का 00(डबल जीरो) नही आया,और गिनती भी पूरी हो गई..महाभारत धर्मग्रंथ में कौरव की संख्या शत बताया गया है....रोमन मे भी 1-2-3-4-5-6-7-8-9-10 की जगह पे (¡)''(¡¡)"(¡¡¡)" पाँच को V कहा जाता है..दस को x कहा जाता है..रोमन मे x को दस कहा जाता है..X= दस..इस रोमन x मे अंक का (जीरो/0) नही आया..और हम" दश पढ भी लिएऔर गिनती पूरी हो गई इस प्रकार रोमन word मे कही 0 (जीरो) नही आता है..और आप भी रोमन मे एक से लेकर सौ की गिनती पढ लिख सकते है..आपको 0 या 00 लिखने की जरूरत भी नही पड़ती है..पहले के जमाने मे गिनती को शब्दो मेलिखा जाता था उस समय अंको का ज्ञान नही था..जैसे गीता,रामायण मे 1, 2, 3, 4, 5, 6, या बाकी पाठो (lesson ) को इस प्रकार पढा जाता है..जैसे (प्रथम अध्याय, द्वितीय अध्याय, पंचम अध्याय,दशम अध्याय... आदि )इनके दशम अध्याय  मतलब दशवा पाठ (10 lesson) होता है..दशम अध्याय= दसवा पाठ..इसमे दश शब्द तो आ गया लेकिन इस दश मे अंको का 0 (जीरो)" का प्रयोग नही हुआ..बिना 0 आए पाठो (lesson) की गिनती दश हो गई...(हिन्दू Vi रोधी  लोग सिर्फ अपने गलत kuतर्क द्वारा..हिन्दू धर्म व हिन्दू धर्मग्रंथो को काल्पनिक साबित करना चाहते है..जिससे हिन्दूओ के मन मे हिन्दू धर्म के प्रति नFरत भरकर और हिन्दू धर्म को काल्पनिक साबित करके,हिन्दू समाज को अन्य धर्मों में परिवर्तित किया जाए..लेकिन आज का हिन्दू समाज अपने धार्मिक शिक्षा को ग्रहण ना करने के कारण इन लोगो के झुठ को सही मान बैठता है
यह हमारे धर्म व संस्कृत के लिए हानि कारक है 
अपनी सभ्यता पहचाने,गर्व करे की हम भारतीय है...

जय सनातन धर्म, जय श्रीराम, जय गोविंदा
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Tuesday, 19 September 2023

हिंदू परम्पराओं में विज्ञान कैसे जुड़ा है ??

हिंदू परम्पराओं में विज्ञान कैसे जुड़ा है आइये जाने 

हिंदुत्व में कुल सात गोत्र होते है और एक गोत्र के लोग आपस में शादी नही कर सकते ताकि जींस सेपरेट (विभाजित) रहे.. एक वैज्ञानिक ने कहा की आज पूरे विश्व को मानना पड़ेगा की हिन्दूधर्म ही विश्व का एकमात्र ऐसा धर्म है जो विज्ञान पर आधारित है

हिंदू परम्पराओं से जुड़े ये वैज्ञानिक तर्क:

1.  कान छिदवाने की परम्परा -

भारत में लगभग सभी धर्मों में कान छिदवाने की परम्परा है। वैज्ञानिक तर्क- दर्शनशास्त्री मानते हैं कि इससे सोचने की शक्त‍ि बढ़ती है। जबकि डॉक्टरों का मानना है कि इससे बोली अच्छी होती है और कानों से होकर दिमाग तक जाने वाली नस का रक्त संचार नियंत्रित रहता है।

2. माथे पर कुमकुम/तिलक -

महिलाएं एवं पुरुष माथे पर कुमकुम या तिलक लगाते हैं। वैज्ञानिक तर्क- आंखों के बीच में माथे तक एक नस जाती है। कुमकुम या तिलक लगाने से उस जगह की ऊर्जा बनी रहती है। माथे पर तिलक लगाते वक्त जब अंगूठे या उंगली से प्रेशर पड़ता है, तब चेहरे की त्वचा को रक्त सप्लाई करने वाली मांसपेशी सक्रिय हो जाती है। इससे चेहरे की कोश‍िकाओं तक अच्छी तरह रक्त पहुंचता

3. जमीन पर बैठकर भोजन -

भारतीय संस्कृति के अनुसार जमीन पर बैठकर भोजन करना अच्छी बात होती है। वैज्ञानिक तर्क- पाल्थी मारकर बैठना एक प्रकार का योग आसन है। इस पोजीशन में बैठने से मस्त‍िष्क शांत रहता है और भोजन करते वक्त अगर दिमाग शांत हो तो पाचन क्रिया अच्छी रहती है। इस पोजीशन में बैठते ही खुद-ब-खुद दिमाग से एक सिगनल पेट तक जाता है, कि वह भोजन के लिये तैयार हो जाये।

4. हाथ जोड़कर नमस्ते करना -

जब किसी से मिलते हैं तो हाथ जोड़कर नमस्ते अथवा नमस्कार करते हैं। वैज्ञानिक तर्क- जब सभी उंगलियों के शीर्ष एक दूसरे के संपर्क में आते हैं और उन पर दबाव पड़ता है। एक्यूप्रेशर के कारण उसका सीधा असर हमारी आंखों, कानों और दिमाग पर होता है, ताकि सामने वाले व्यक्त‍ि को हम लंबे समय तक याद रख सकें। दूसरा तर्क यह कि हाथ मिलाने (पश्च‍िमी सभ्यता) के बजाये अगर आप नमस्ते करते हैं तो सामने वाले के शरीर के कीटाणु आप तक नहीं पहुंच सकते। अगर सामने वाले को स्वाइन फ्लू भी है तो भी वह वायरस आप तक नहीं पहुंचेगा।

5.  भोजन की शुरुआत तीखे से और अंत मीठे से -

जब भी कोई धार्मिक या पारिवारिक अनुष्ठान होता है तो भोजन की शुरुआत तीखे से और अंत मीठे से होता है। वैज्ञानिक तर्क- तीखा खाने से हमारे पेट के अंदर पाचन तत्व एवं अम्ल सक्रिय हो जाते हैं। इससे पाचन तंत्र ठीक तरह से संचालित होता है। अंत में मीठा खाने से अम्ल की तीव्रता कम हो जाती है। इससे पेट में जलन नहीं होती है।

6. पीपल की पूजा -
तमाम लोग सोचते हैं कि पीपल की पूजा करने से भूत-प्रेत दूर भागते हैं। वैज्ञानिक तर्क- इसकी पूजा इसलिये की जाती है, ताकि इस पेड़ के प्रति लोगों का सम्मान बढ़े और उसे काटें नहीं। पीपल एक मात्र ऐसा पेड़ है, जो रात में भी ऑक्सीजन प्रवाहित करता है।

7. दक्ष‍िण की तरफ सिर करके सोना -

दक्ष‍िण की तरफ कोई पैर करके सोता है, तो लोग कहते हैं कि बुरे सपने आयेंगे, भूत प्रेत का साया आ जायेगा, आदि। इसलिये उत्तर की ओर पैर करके सोयें। वैज्ञानिक तर्क- जब हम उत्तर की ओर सिर करके सोते हैं, तब हमारा शरीर पृथ्वी की चुंबकीय तरंगों की सीध में आ जाता है। शरीर में मौजूद आयरन यानी लोहा दिमाग की ओर संचारित होने लगता है। इससे अलजाइमर, परकिंसन, या दिमाग संबंधी बीमारी होने का खतरा बढ़ जाता है। यही नहीं रक्तचाप भी बढ़ जाता है।

8. सूर्य नमस्कार -
हिंदुओं में सुबह उठकर सूर्य को जल चढ़ाते हुए नमस्कार करने की परम्परा है। वैज्ञानिक तर्क- पानी के बीच से आने वाली सूर्य की किरणें जब आंखों में पहुंचती हैं, तब हमारी आंखों की रौशनी अच्छी होती है।

9. सिर पर चोटी -

हिंदू धर्म में ऋषि मुनी सिर पर चुटिया रखते थे। आज भी लोग रखते हैं। वैज्ञानिक तर्क- जिस जगह पर चुटिया रखी जाती है उस जगह पर दिमाग की सारी नसें आकर मिलती हैं। इससे दिमाग स्थ‍िर रहता है और इंसान को क्रोध नहीं आता, सोचने की क्षमता बढ़ती है।

10. व्रत रखना -

कोई भी पूजा-पाठ या त्योहार होता है, तो लोग व्रत रखते हैं।वैज्ञानिक तर्क- आयुर्वेद के अनुसार व्रत करने से पाचन क्रिया अच्छी होती है और फलाहार लेने से शरीर का डीटॉक्सीफिकेशन होता है, यानी उसमें से खराब तत्व बाहर निकलते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार व्रत करने से कैंसर का खतरा कम होता है। हृदय संबंधी रोगों, मधुमेह, आदि रोग भी जल्दी नहीं लगते।

11. चरण स्पर्श करना -

हिंदू मान्यता के अनुसार जब भी आप किसी बड़े से मिलें, तो उसके चरण स्पर्श करें। यह हम बच्चों को भी सिखाते हैं, ताकि वे बड़ों का आदर करें..

जय सनातन धर्म, जय श्रीराम, जय गोविंदा

Friday, 8 September 2023

मृत्यु के १४ प्रकार एक बार जरूर जाने !!

मृत्यु के १४ प्रकार 

राम-रावण युद्ध चल रहा था, तब अंगद ने रावण से कहा- तू तो मरा हुआ है, मरे हुए को मारने से क्या फायदा?

रावण बोला– मैं जीवित हूँ, मरा हुआ कैसे?
अंगद बोले, सिर्फ साँस लेने वालों को जीवित नहीं कहते साँस तो लुहार की धौंकनी भी लेती है!

तब अंगद ने मृत्यु के 14  प्रकार बताए-

कौल कामबस कृपिन विमूढ़ा।
अतिदरिद्र अजसि अतिबूढ़ा।।
सदारोगबस संतत क्रोधी।
विष्णु विमुख श्रुति संत विरोधी।।
तनुपोषक निंदक अघखानी।
जीवत शव सम चौदह प्रानी।।

1. कामवश: जो व्यक्ति अत्यंत भोगी हो, कामवासना में लिप्त रहता हो, जो संसार के भोगों में उलझा हुआ हो, वह मृत समान है। जिसके मन की इच्छाएं कभी खत्म नहीं होतीं और जो प्राणी सिर्फ अपनी इच्छाओं के अधीन होकर ही जीता है, वह मृत समान है। वह अध्यात्म का सेवन नहीं करता है, सदैव वासना में लीन रहता है।

2. वाममार्गी: जो व्यक्ति पूरी दुनिया से उल्टा चले, जो संसार की हर बात के पीछे नकारात्मकता खोजता हो; नियमों, परंपराओं और लोक व्यवहार के खिलाफ चलता हो, वह वाम मार्गी कहलाता है। ऐसे काम करने वाले लोग मृत समान माने गए हैं।

3. कंजूस: अति कंजूस व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जो व्यक्ति धर्म कार्य करने में, आर्थिक रूप से किसी कल्याणकारी कार्य में हिस्सा लेने में हिचकता हो, दान करने से बचता हो, ऐसा आदमी भी मृतक समान ही है।

4. अति दरिद्र: गरीबी सबसे बड़ा श्राप है। जो व्यक्ति धन, आत्म-विश्वास, सम्मान और साहस से हीन हो, वह भी मृत ही है। अत्यंत दरिद्र भी मरा हुआ है। गरीब आदमी को दुत्कारना नहीं चाहिए, क्योंकि वह पहले ही मरा हुआ होता है। दरिद्र-नारायण मानकर उनकी मदद करनी चाहिए।

5. विमूढ़: अत्यंत मूढ़ यानी मूर्ख व्यक्ति भी मरा हुआ ही होता है। जिसके पास बुद्धि-विवेक न हो, जो खुद निर्णय न ले सके, यानि हर काम को समझने या निर्णय लेने में किसी अन्य पर आश्रित हो, ऐसा व्यक्ति भी जीवित होते हुए मृतक समान ही है, मूढ़ अध्यात्म को नहीं समझता।

6. अजसि: जिस व्यक्ति को संसार में बदनामी मिली हुई है, वह भी मरा हुआ है। जो घर-परिवार, कुटुंब-समाज, नगर-राष्ट्र, किसी भी ईकाई में सम्मान नहीं पाता, वह व्यक्ति भी मृत समान ही होता है।

7. सदा रोगवश: जो व्यक्ति निरंतर रोगी रहता है, वह भी मरा हुआ है। स्वस्थ शरीर के अभाव में मन विचलित रहता है। नकारात्मकता हावी हो जाती है। व्यक्ति मृत्यु की कामना में लग जाता है। जीवित होते हुए भी रोगी व्यक्ति जीवन के आनंद से वंचित रह जाता है।

8. अति बूढ़ा: अत्यंत वृद्ध व्यक्ति भी मृत समान होता है, क्योंकि वह अन्य लोगों पर आश्रित हो जाता है। शरीर और बुद्धि, दोनों अक्षम हो जाते हैं। ऐसे में कई बार वह स्वयं और उसके परिजन ही उसकी मृत्यु की कामना करने लगते हैं, ताकि उसे इन कष्टों से मुक्ति मिल सके।

9. सतत क्रोधी: 24 घंटे क्रोध में रहने वाला व्यक्ति भी मृतक समान ही है। ऐसा व्यक्ति हर छोटी-बड़ी बात पर क्रोध करता है। क्रोध के कारण मन और बुद्धि दोनों ही उसके नियंत्रण से बाहर होते हैं। जिस व्यक्ति का अपने मन और बुद्धि पर नियंत्रण न हो, वह जीवित होकर भी जीवित नहीं माना जाता। पूर्व जन्म के संस्कार लेकर यह जीव क्रोधी होता है।
क्रोधी अनेक जीवों का घात करता है और नरक गामी होता है।

10. अघ खानी: जो व्यक्ति पाप कर्मों से अर्जित धन से अपना और परिवार का पालन-पोषण करता है, वह व्यक्ति भी मृत समान ही है। उसके साथ रहने वाले लोग भी उसी के समान हो जाते हैं। हमेशा मेहनत और ईमानदारी से कमाई करके ही धन प्राप्त करना चाहिए। पाप की कमाई पाप में ही जाती है और पाप की कमाई से नीच गोत्र, निगोद की प्राप्ति होती है।

11. तनु पोषक: ऐसा व्यक्ति जो पूरी तरह से आत्म संतुष्टि और खुद के स्वार्थों के लिए ही जीता है, संसार के किसी अन्य प्राणी के लिए उसके मन में कोई संवेदना न हो, ऐसा व्यक्ति भी मृतक समान ही है। जो लोग खाने-पीने में, वाहनों में स्थान के लिए, हर बात में सिर्फ यही सोचते हैं कि सारी चीजें पहले हमें ही मिल जाएं, बाकी किसी अन्य को मिलें न मिलें, वे मृत समान होते हैं। ऐसे लोग समाज और राष्ट्र के लिए अनुपयोगी होते हैं। शरीर को अपना मानकर उसमें रत रहना मूर्खता है, क्योंकि यह शरीर विनाशी है, नष्ट होने वाला है।

12. निंदक: अकारण निंदा करने वाला व्यक्ति भी मरा हुआ होता है। जिसे दूसरों में सिर्फ कमियाँ ही नजर आती हैं, जो व्यक्ति किसी के अच्छे काम की भी आलोचना करने से नहीं चूकता है, ऐसा व्यक्ति जो किसी के पास भी बैठे, तो सिर्फ किसी न किसी की बुराई ही करे, वह व्यक्ति भी मृत समान होता है। परनिंदा करने से नीच गोत्र का बंध होता है।

13. परमात्म विमुख: जो व्यक्ति ईश्वर यानि परमात्मा का विरोधी है, वह भी मृत समान है। जो व्यक्ति यह सोच लेता है कि कोई परमतत्व है ही नहीं; हम जो करते हैं, वही होता है, संसार हम ही चला रहे हैं, जो परमशक्ति में आस्था नहीं रखता, ऐसा व्यक्ति भी मृत माना जाता है।

14. श्रुति संत विरोधी: जो संत, ग्रंथ, पुराणों का विरोधी है, वह भी मृत समान है। श्रुत और संत, समाज में अनाचार पर नियंत्रण (ब्रेक) का काम करते हैं। अगर गाड़ी में ब्रेक न हो, तो कहीं भी गिरकर एक्सीडेंट हो सकता है। वैसे ही समाज को संतों की जरूरत होती है, वरना समाज में अनाचार पर कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा।

अतः मनुष्य को उपरोक्त चौदह दुर्गुणों से यथासंभव दूर रहकर स्वयं को मृतक समान जीवित रहन से बचाना चाहिए।

जय श्री राम, जय श्री हनुमान, जय गोविंदा, जय भारत
🙏🙏🙏

Wednesday, 6 September 2023

नाडी परीक्षा क्या है आइये जाने

नाडी परीक्षा...

नाडी परीक्षा के बारे में शारंगधर संहिता, भावप्रकाश, योगरत्नाकर आदि ग्रंथों में वर्णन है। महर्षि सुश्रुत अपनी योगिक शक्ति से समस्त शरीर की सभी नाड़ियाँ देख सकते थे।

ऐलोपेथी में तो पल्स सिर्फ दिल की धड़कन का पता लगाती है; पर ये इससे कहीं अधिक बताती है। आयुर्वेद में पारंगत वैद्य नाडी परीक्षा से रोगों का पता लगाते है।

इससे ये पता चलता है की कौन सा दोष शरीर में विद्यमान है।
ये बिना किसी महँगी और तकलीफदायक डायग्नोस्टिक तकनीक के बिलकुल सही निदान करती है। जैसे कि शरीर में कहाँ कितने साइज़ का ट्यूमर है, किडनी खराब है या ऐसा ही कोई भी जटिल से जटिल रोग का पता चल जाता है। दक्ष वैद्य हफ्ते भर पहले क्या खाया था ये भी बता देतें है। भविष्य में क्या रोग होने की संभावना है ये भी पता चलता है।

- महिलाओं का बाया और पुरुषों का दाया हाथ देखा जाता है।
- कलाई के अन्दर अंगूठे के नीचे जहां पल्स महसूस होती है तीन उंगलियाँ रखी जाती है।
- अंगूठे के पास की ऊँगली में वात, मध्य वाली ऊँगली में पित्त और अंगूठे से दूर वाली ऊँगली में कफ महसूस किया जा सकता है।
- वात की पल्स अनियमित और मध्यम तेज लगेगी।
- पित्त की बहुत तेज पल्स महसूस होगी।
- कफ की बहुत कम और धीमी पल्स महसूस होगी।
- तीनो उंगलियाँ एक साथ रखने से हमें ये पता चलेगा कि कौन सा दोष अधिक है।
- प्रारम्भिक अवस्था में ही उस दोष को कम कर देने से रोग होता ही नहीं।
- हर एक दोष की भी 8 प्रकार की पल्स होती है; जिससे रोग का पता चलता है, इसके लिए अभ्यास की ज़रुरत होती है।
- कभी कभी 2 या 3 दोष एक साथ हो सकते है।
- नाडी परीक्षा अधिकतर सुबह उठकर आधे एक घंटे बाद करते है जिससे हमें अपनी प्रकृति के बारे में पता चलता है। ये भूख प्यास, नींद, धुप में घुमने, रात्री में टहलने से, मानसिक स्थिति से, भोजन से, दिन के अलग अलग समय और मौसम से बदलती है।
- चिकित्सक को थोड़ा आध्यात्मिक और योगी होने से मदद मिलती है। सही निदान करने वाले नाडी पकड़ते ही तीन सेकण्ड में दोष का पता लगा लेते है। वैसे 30 सेकण्ड तक देखना चाहिए।
- मृत्यु नाडी से कुशल वैद्य भावी मृत्यु के बारे में भी बता सकते है।
- आप किस प्रकृति के है? वात प्रधान, पित्त प्रधान या कफ प्रधान या फिर मिश्र? 
खुद कर के देखे या किसी वैद्य से पता कर देखिये।

जय श्री राम जय गोविंदा जय सनातन संस्कृति 🙏

Monday, 4 September 2023

श्री कृष्ण जन्माष्टमी_व्रत करने की विधि आइये जाने ?

।। श्री कृष्ण जन्माष्टमी_व्रत ।। 

#Thread 
सामन्य गृहस्थ/ स्मार्त का व्रत तारीख ६ बुधवार को है।
वैष्णवो का व्रत तारीख ७ गुरुवार को है।

जन्माष्टमी के ऊपर दो मत है 

#स्मार्त संप्रदाय के अनुसार
और 
#वैष्णव संप्रदाय के अनुसार।

सरलतम भाषा मे कहे तो जो दो मत के नाम पढकर स्वयं कौन से संप्रदाय के है यह खोज रहे है वह सभी स्मार्त है।

स्मार्त और वैष्णव की परिभाषा धर्म शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर हमें ग्रहण करनी होगी स्मार्त का अर्थ है जो स्मृति ग्रंथो के अनुसार आचरण करें अर्थात गृहस्थी लोग।

और वैष्णव का अर्थ है जो वैखानस,पंचरात्रादी शास्त्रों के आधार पर  आचरण करे वैष्णव दिक्षा प्राप्त अथवा जो संन्यास ग्रहण चुके हैं।

वैष्णव का अर्थ भगवान विष्णु की पूजा करने वाले कदापि नहीं है। बल्कि जो संन्यस्त हैं, सन्यास में ‘दीक्षित’ हैं / वैष्णव परंपरा मे ‘दीक्षित’ वही धर्म शास्त्रीय मतानुसार वैष्णव कहे गये हैं ।
यह दोनों व्याख्याएं बहुत प्राचीन है।

अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है की जन्माष्टमी व्रत कौन किस दिन करें।

इसमें निम्न स्थितियां स्मार्त संप्रदाय के अनुसार है:--

१.यदि अष्टमी पहले दिन अर्ध रात्रि काल में चंद्रोदय के समय हो तो जन्माष्टमी व्रत पहले दिन करें।

२. यदि अष्टमी केवल दूसरे दिन ही चंद्रोदय के समय हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन करें।

३. यदि अष्टमी तिथि दोनों दिन अर्ध रात्रि में चंद्रोदय के समय हो  और रोहिणी का योग एक भी दिन ना हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन करें।

४. यदि अष्टमी तिथि दोनों दिन अर्ध रात्रि में चंद्रोदय के समय हो और रोहिणी का योग एक ही दिन अर्धरात्रि में हो तो जन्माष्टमी व्रत रोहिणी योग वाले दिन करें।

५. यदि दोनों दिन अर्धरात्रि में चंद्रोदय के समय अष्टमी हो और दोनों दिन अर्धरात्रि में रोहिणी का योग भी हो तो जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन करें।

६. यदि दोनों दिन अष्टमी अर्धरात्रि में चंद्रोदय के समय न हो तो इस स्थिति में जन्माष्टमी व्रत दूसरे दिन ही होगा।

कुछ लोग कहीं-कहीं के संस्कृत वाक्य उठा उठा कर के लिख रहे हैं।
उन्हें उन वाक्यों के प्रसंग का बिल्कुल ख्याल नहीं है वह वाक्य या तो संन्यासियों के विषय में कहे गए हैं या उन्होंने पूरे प्रकरण को ध्यान से नहीं पढ़ा है।

पहले अज्ञानता के कारण अष्टमी का व्रत करके अगले दिन गोगा नवमी का पूजन किया जाता था।

जबकि हकीकत यह है कि गोगा नवमी का पूजन सूर्योदय कालीन नवमी के दिन ही किया जाता है और जन्माष्टमी का व्रत अर्धरात्रि में अष्टमी हो और चंद्रोदय हो उस दिन किया जाता है।

यह दोनों पर अलग-अलग है। इनका मुहूर्त भी अलग-अलग दिन हो सकता है।

व्रतों के निर्णय में पुराणों के छिटपुट वाक्य प्रमाण नहीं माने जा सकते।

इस विषय पर #धर्मसिंधु, #निर्णयसिंधु ,#कालमाधव, #पुरुषार्थचिंतामणि, #तिथिनिर्णय आदि विशेष ग्रंथों में हमारे पूर्वजों ने बहुत खोजबीन कर ही निर्णय दिया गया है इसका सारांश मैंने जन्माष्टमी व्रत के विषय में ऊपर लिख दिया।

#प्रमाण---

मासे भाद्रपदेऽष्टम्यां निशीथे कृष्णपक्षगे।
 --- भागवत पुराण

उपोष्य जन्मचिन्हानि कुर्याज्जागरणं तु य:।अर्धरात्रयुताष्टम्यां सोऽश्वमेधफलं लभेद्।
 ---नारद पुराण

 वर्जनीया प्रयत्नेन सप्तमीयुताष्टमी....
यह पूर्वविद्धा परविद्धा का मत का ग्रहण तभी किया जाता है जब तिथि दोनों दिन कर्मकाल में व्याप्त या अव्याप्त हो--उभयत्र कर्मकालव्याप्तौ अव्याप्तौ वा युग्मवाक्यादिना पूर्वविद्धाया: परविद्धाया: वा तिथे: गृराह्यत्वम्
 -- धर्मसिंधु:

उदये चाष्टमी किंचित्सकला नवमी यदि....
यहां उदये का अर्थ चंद्रोदय से ही है--- 
उदये= चन्द्रोदये इति व्याख्येयम् ,"अर्धरात्रे तु योगोऽयं तारापत्युदये सति"
--इति विष्णुधर्मोक्ते-- भट्टोजिदीक्षित (तिथिनिर्णय ग्रंथे )

और भी--
सामान्यत जन्माष्टमी,जयन्ती और शिवरात्रि सप्तमीविद्धा ही प्रशस्त है 

जन्माष्टमी जयन्ती च शिवरात्रिस्तथैव च।
पूर्वविद्धैव कर्त्तव्या तिथिभान्ते च पारणम्।।
--- भृगु।

और भी--
सप्तमीविद्धा अष्टमी में ही उपवास करें-

जयन्त्यां पूर्वविद्धायां
 उपवासं समाचरेत्- पद्मपुराण 

रोहिणी नक्षत्र--
रोहिणी नक्षत्र का योग न होने पर रात्रि में चन्द्रोदयअष्टमी में ही है व्रत करना चाहिए , अगले दिन रोहिणी नक्षत्र हो लेकिन रात में चन्द्रोदय में अष्टमी न हो तो अर्थहीन है--

रोहिणीयोगाऽभावेऽपि अर्द्धरात्रि व्यापिनी अष्टमी ग्राह्या। परदिने नक्षत्रयोग: अकिंचित्कर:-- मीमांसक भट्टोजिदीक्षित।

 अतः सामान्य गृहस्थि स्मार्त का व्रत तारीख ६ बुधवार को निर्विवाद रूप से है।

(यह लेख समस्त व्रत विषयक ग्रंथों का सार है जो आजीवन काम आएगा। विज्ञ इसे सुरक्षित रखें)
#KrishnaJanmashtami
हर हर महादेव 🙏🚩

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