Thursday, 1 May 2025

बद्रीनाथ मंदिर में आखिर क्यों नहीं बजाया जाता शंख?


🔹जानें इसके पीछे की रहस्यमयी कहानी🔹

हिंदू धर्म में किसी भी पूजा-पाठ के पहले और आखिरी में शंखनाद किया जाता है। पूजा-पाठ के साथ हर मांगलिक कार्यों के दौरान भी शंख बजाया जाता है। शंख को सुख-समृद्धि और शुभता का कारक माना गया है।

कहते हैं कि शंख बजाए बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। वहीं चार धामों में से एक बद्रीनाथ में शंख बजाने की मनाही है।

बद्रीनाथ मंदिर में भगवान विष्णु के अवतार बद्रीनारायण की पूजा की जाती है। यहां उनकी 3.3 फीट ऊंची शालिग्राम की बनी मूर्ति है।

माना जाता है कि इस मूर्ति की स्थापना शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में की थी।

माना जाता है कि भगवान विष्णु की यह मूर्ति यहां स्वयं स्थापित हुई थी, कहते हैं इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने तपस्या की थी।

बद्रीनाथ में शंख न बजाने के पीछे कथा प्रचलित है। जिसके अनुसार जब हिमालय में दानवों का बड़ा आतंक था तब ऋषि मुनि न मंदिरों में ना ही किसी और स्थान पर भगवान की पूजा अर्चना कर पाते थे।

राक्षसों के आतंक को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद मां कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से राक्षसों को खत्म कर दिया।

हालांकि मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए दो राक्षस आतापी और वातापी वहां से भाग निकले। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया और वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। जिसके बाद से यहां शंख नहीं बजाया जाता।

बद्रीनाथ में शंख न बजाने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है। जिसके अनुसार अगर यहां शंख बजाया जाए तो उसकी आवाज बर्फ से टकराकर ध्वनि पैदा कर करेगी जिससे बर्फ में दरार पड़ सकती है और हिमस्खलन का खतरा भी बढ़ सकते है। इसलिए यहां शंख नहीं बजाया जाता।

जय बद्री विशाल 🙏🚩

Tuesday, 29 April 2025

क्या ब्रह्माजी के पैरों से शूद्रों का जन्म हुआ! सच क्या है?



दलितों को उकसाकर हिंदू धर्म से अलग करने में जुटे लोग अक्सर दलील देते हैं कि हिंदू धर्म की मान्यता है कि शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से हुआ है। इस आधार पर जाति व्यवस्था को भेदभाव वाला साबित करे की कोशिश लगातार चलती रहती है। दरअसल ये बात पूरी तरह गलत है। पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मंडल का एक प्रमुख सूक्त यानी मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष का वर्णन किया गया है और उसके अंगों का वर्णन है। “ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ इसका अर्थ बताया जाता है कि उस विराट परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, बाहुओं से क्षत्रियों की, उदर से वैश्यों की और पदों यानी पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

क्या है सच?

सच्चाई जानने के लिए आपको मंत्र 13 से पहले मंत्र 12 को पढ़ना होगा। इस मंत्र में पूछा जाता है कि कौन मुख के समान है? कौन हाथ के समान, कौन पेट के समान और कौन पैर के समान? “यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥12॥” इसके जवाब में बताया जाता है कि ब्राह्मण (शिक्षक और बुद्धिजीवी) इस शरीर संरचना के मुख हैं, क्षत्रिय (रक्षक) हाथों के समान, वैश्य (पालन करने वाले) पेट के समान और शूद्र (श्रमिक) पैरों के समान हैं। यानी समाज के अलग-अलग हिस्सों को उनकी जिम्मेदारी के हिसाब से उनकी तुलना मानव शरीर से की गई है। इसमें पैदा करने या उत्पन्न होने जैसी कोई बात ही नहीं है। अक्सर समाज की तुलना मानव शरीर से की जाती है।

वेदों में शूद्र

चारों वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग 20 बार आया है। कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है। वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, उन्हें वेदों का अध्ययन करने से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है। वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम” यजुर्वेद 30.5), इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है। इसका जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं जहां शूद्र माता-पिता से पैदा हुआ कोई व्यक्ति विद्वान पंडित बना। लेकिन वामपंथी कांग्रेसी शिक्षाविदों ने एक साजिश के तहत लगातार यह भ्रम पैदा किया कि वैदिक व्यवस्था में समाज के श्रमिक वर्ग का अपमान किया गया है और उसे अछूत माना गया है।

जागरूक हिन्दू सशक्त सनातन

Wednesday, 26 March 2025

भगवान श्री हरि विष्णु जी के दिव्य अवतार

भगवान विष्णु जी  सृष्टि के पालनहार

1️⃣ परिचय – हिंदू धर्म में भगवान विष्णु को त्रिदेवों में से एक माना जाता है, जो सृष्टि के पालनहार हैं। वे संसार की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए समय-समय पर अवतार लेते हैं।
2️⃣ श्रीहरि विष्णु का स्वरूप – उनका वर्ण नीलवर्ण है, वे चार भुजाओं वाले हैं। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म होते हैं। उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी हैं और वाहन गरुड़।
3️⃣ दशावतार – जब भी अधर्म बढ़ता है, तब भगवान विष्णु अवतार धारण करते हैं। उनके दस प्रमुख अवतार हैं:
मत्स्य
कूर्म
वराह
नृसिंह
वामन
परशुराम
राम
कृष्ण
बुद्ध
कल्कि (आने वाला अवतार)
4️⃣ श्रीहरि का महत्व – वे न केवल सृष्टि के पालनकर्ता हैं, बल्कि भक्ति, प्रेम, और करुणा के प्रतीक भी हैं। विष्णु सहस्रनाम में उनके 1000 नामों का वर्णन मिलता है।
5️⃣ विष्णु पूजन एवं मंत्र –
“ॐ नमो नारायणाय”
“ॐ विष्णवे नमः”
“ॐ श्रीं विष्णवे नमः”
6️⃣ वैष्णव संप्रदाय – जो भक्त विष्णु की आराधना करते हैं, उन्हें वैष्णव कहा जाता है। भारत में कई प्रमुख वैष्णव संप्रदाय हैं, जैसे कि श्रीसम्प्रदाय (रामानुजाचार्य), मध्व सम्प्रदाय, गौड़ीय वैष्णव (चैतन्य महाप्रभु)।
7️⃣ विष्णु जी के प्रमुख मंदिर –
तिरुपति बालाजी (आंध्र प्रदेश)
श्री रंगनाथस्वामी मंदिर (तमिलनाडु)
बद्रीनाथ धाम (उत्तराखंड)
जगन्नाथ पुरी (ओडिशा)
8️⃣ गीता में विष्णु तत्व – श्रीकृष्ण (विष्णु के अवतार) ने अर्जुन को गीता में विराट स्वरूप दिखाया था, जिसमें पूरी सृष्टि समाहित थी।
भगवान विष्णु की भक्ति से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मिलता है।

🙏 जय श्री हरि विष्णु जी 🙏

Wednesday, 26 February 2025

शिव शंकर की तीसरी आँख का रहस्य ?

शिव की तीसरी आंख

महादेव को तीसरी आंख को लेकर कई कथाएं प्रचलित है उनमें से एक कथा के अनुसार जब कामदेव ने भोलेनाथ की तपस्या को भंग करने की कोशिश की थी तब शिव जी की तीसरी आंख उत्पन्न हुई थी और उसी से उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने जब पीछे से आकर भोलेनाथ की दोनों आंखों को अपने हाथों से बंद कर दिया था तब समस्त संसार में अंधकार छा गया था। तब संसार को वापस प्रकाशमय करने के लिए शिव जी की तीसरी आंख खुद ही खुल गयी थी और फिर से चारों ओर रौशनी ही रौशनी हो गयी थी।

• कहते हैं शिव जी की एक आंख सूर्य है, तो दूसरी आंख चंद्रमा इसलिए जब पार्वती जी ने उनके नेत्रों को बंद किया तो चारों और अन्धकार फैल गया था।

दिव्य दृष्टि का प्रतीक कहते हैं शिव जी की वीसरी आंख उनका कोई अतिरिक्त ऐसा नहीं है, बल्कि ये उनकी दिव्य दृष्टि का प्रतीक है जो आत्मज्ञान के लिए बेहद जख्खी जैसे शिव जी को संसार का संहारक कहा जाता है जब जब संकट के बादल छाए तब तब भोलेनाथ ने पूरे संसार को विपदा से बचाया है। माना जाता है कि महादेव की ठीसरी आंख से कुछ भी बच नहीं सकता। उनकी यह आंख तब तक बंद रहती है जब तक उनका मन शांत होता है किन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो उनके इस नेत्र की अग्नि से कोई नहीं बच सकता।

Tuesday, 14 January 2025

🌞 मकर संक्रांति: पुराणों में वर्णित एक दिव्य यात्रा और उसका गहन महत्व


मकर संक्रांति का पर्व भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में विशेष स्थान रखता है। यह केवल खगोलीय घटना नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, धार्मिक, और पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। आइए इसे गहन पौराणिक संदर्भों और कथाओं के माध्यम से समझें।


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🌄 सूर्य देव का मकर राशि में प्रवेश: पौराणिक महत्व

मकर संक्रांति का उल्लेख वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। ब्रह्मांडीय दृष्टि से, यह दिन सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने का प्रतीक है, जिसे "उत्तरायण" कहा जाता है। महाभारत के अनुसार, उत्तरायण काल को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को रात्रि माना गया है। यह काल शुभता और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। भीष्म पितामह ने भी अपने देहत्याग के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी।

स्कंद पुराण और पद्म पुराण में उल्लेख मिलता है कि मकर संक्रांति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि देव (मकर राशि के स्वामी) के घर जाते हैं। यह पिता-पुत्र के मिलन का प्रतीक है, जिससे रिश्तों में सामंजस्य और प्रेम का संदेश मिलता है।


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🛕 गंगा स्नान और मकर संक्रांति का दिव्य संबंध

पद्म पुराण में वर्णित है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। कथा के अनुसार, इस दिन गंगा मां ने भगवान विष्णु के आदेश पर भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर कपिल मुनि के आश्रम में अपने जल से पूर्वजों को तार दिया। यही कारण है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है।

माना जाता है कि इस दिन गंगा, यमुना, सरस्वती और अदृश्य पवित्र नदियों का संगम प्रयागराज (महाकुंभ क्षेत्र) में होता है। स्कंद पुराण कहता है:
"माघे मासे महादेव, मकरस्थे दिवाकरे।
स्नानं दानं तपः कार्यं, मुक्त्यर्थं विप्रसम्मतम्।।"
अर्थात, माघ मास में, जब सूर्य मकर राशि में हो, तब स्नान, दान और तप करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।


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🙏 दान और तप का महत्व: विष्णु और शंकर की कथा

मकर संक्रांति को "दान का पर्व" भी कहा गया है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु ने इस दिन असुरों का संहार करके उनके सिरों को मंदराचल पर्वत पर स्थापित किया। यह सत्य और धर्म की विजय का प्रतीक है। उसी समय से मकर संक्रांति पर अन्न, वस्त्र, और तिल दान करने की परंपरा आरंभ हुई।

महाभारत में लिखा गया है:
"तिल दानं तथा स्नानं सर्वपाप प्रणाशनम्।"
तिल से जुड़ी परंपरा के पीछे यह मान्यता है कि तिल के दान और सेवन से मनुष्य की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है और जीवन में शांति और सुख का संचार होता है।


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✨ मकर संक्रांति और महाकुंभ का दिव्य संगम

महाकुंभ और मकर संक्रांति का सीधा संबंध है। भागवत पुराण में वर्णित "समुद्र मंथन" की कथा के अनुसार, अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं। प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक को वह चार स्थान कहा गया जहां ये बूंदें गिरीं। मकर संक्रांति के दिन इन स्थानों पर स्नान करने से साधक को अमृत की प्राप्ति जैसी अनुभूति होती है।

स्कंद पुराण के अनुसार, इस दिन प्रयागराज में स्नान करने से 88,000 ब्राह्मणों को भोजन कराने जितना पुण्य प्राप्त होता है। महाकुंभ स्नान आत्मा की शुद्धि का अद्भुत माध्यम है, जो मनुष्य को उसकी सांसारिक और आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ने में सहायता करता है।


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🌅 एक साधक की अद्भुत कथा

पौराणिक काल में, एक ऋषि थे, ऋचीक मुनि, जो गंगा किनारे तपस्या कर रहे थे। मकर संक्रांति के दिन, उन्होंने गंगा में स्नान किया और सूर्य देव का ध्यान करते हुए तिल और गुड़ का दान किया। उसी रात, उनके सपने में भगवान विष्णु ने दर्शन दिए और कहा, "जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन स्नान, दान और पूजा करता है, वह केवल इस जीवन में ही नहीं, बल्कि अगले जन्मों में भी शुभता और मोक्ष प्राप्त करता है।"


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🕉️ आध्यात्मिक शक्तियों का अद्भुत समागम

मकर संक्रांति केवल पर्व नहीं, बल्कि एक ऐसा दिन है जब ब्रह्मांड की ऊर्जा सबसे सकारात्मक होती है। इस दिन:

1. सूर्य पूजा से मानसिक और शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है।


2. गंगा स्नान से पापों का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है।


3. दान से धन और समृद्धि में वृद्धि होती है।


4. योग और ध्यान से आध्यात्मिक उन्नति होती है।




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🔔 निष्कर्ष: एक दिव्य संदेश

मकर संक्रांति केवल एक पर्व नहीं, बल्कि जीवन को सुधारने, आत्मा को शुद्ध करने और ब्रह्मांडीय ऊर्जा का अनुभव करने का अवसर है। इस दिन की पौराणिक महिमा और लाभ को ध्यान में रखते हुए, हर व्यक्ति को इसे श्रद्धा और समर्पण के साथ मनाना चाहिए।

"सूर्य देव की कृपा से आपका जीवन प्रकाशमय हो, और मकर संक्रांति का पर्व आपको शांति, समृद्धि और मोक्ष की ओर अग्रसर करे।"

Monday, 13 January 2025

कुम्भ का महत्व और इसका उदगम आइये जानें!

समुद्र मंथन का प्रमाण --
श्रीमद्भागवत पुराण के सागर मंथन प्रसंग में कुंभ का उल्लेख मिलता है। इस विवरण के अनुसार, सागर के चौदह रत्न निकले थे। ये कालकूट विष, कामधेनु, कल्पवृक्ष, कौस्तुभमणि, उच्चैश्रवा अश्व, ऐरावत गज, रंभा अप्सरा, सुरा, लक्ष्मी, चंद्रमा, शार्गंधनुष, भगवान धन्वन्तरि, पांचजन्य शंख एवं अमृत कुंभ। जनकल्याणार्थ भगवान सदाशिव कालकूट स्वयं पी गए थे। विश्वमोहनी बने भगवान विष्णु ने अमृत देवताओं को पिला दिया। हालांकि यहां पुराणों में मतांतर मिलता है।
वामन पुराण के विवरण के अनुसार, आचार्य बृहस्पति का संकेत पाकर इंद्र का पुत्र जयंत अमृत कुंभ लेकर भाग गया। मोहान्ध दैत्यगणों ने उसका पीछा किया। फिर लगातार बारह वर्षों तक दैत्यों और देवताओं के बीच घनघोर युद्ध चला। युद्ध के समय जयंत के हाथों पकड़े अमृतकुंभ से त्रिलोक के बारह स्थानों पर अमृत की बूंदें गिरी थीं। इनमें से आठ स्थान देवलोक और चार स्थान पृथ्वीलोक में अवस्थित हैं। पृथ्वी के ये चार स्थान हैं। हरिद्वार, प्रयाग उज्जैन और नासिक हैं।

अन्य प्रमाण ---
गर्ग पुराण में वर्णित एक अन्य कथा के अनुसार, पक्षीराज गरुड़ अपनी माता विनिता को सर्पों की माता कद्रू की कैद से छुड़ाने के लिए शर्त के अनुसार, स्वर्ग से अमृतकुंभ लाए थे। उन्होंने सर्पों को अमृतकुंभ सौंपकर अपनी माता को मुक्त कराया, परंतु सर्प इसे पी पाएं इसके पहले ही इंद्र इसे वापस ले गए। इसी समय कुंभ से अमृत की चार बूंदें पृथ्वी के चार स्थानों पर गिर गयीं।

कालंतर में इन्हीं चार स्थानों को कुंभ पर्व के आयोजन के लिए पवित्र माना गया। वायु पुराण और नारदीय पुराण में सरस्वती नदी के तट पर स्थित कुंभ और श्रीकुंभ तीर्थ का वर्णन किया गया। वेदों की कई ऋचाओं में कुंभ, घट एवं कलश के संदर्भ में अनेकों आख्यान मिलते हैं। ऋग्वेद और अथर्ववेद में घृत और मधुपूरित कुंभ का उल्लेख मिलता है। कालिदास ने ‘कांचन कुंभ तीर्थ’ कहकर कुंभपर्व की प्राचीनता एवं महत्ता प्रतिपादित की है।

ऐतिहासिक प्रमाण ---
इतिहास विशेषज्ञों ने कुंभ पर्व की प्राचीनता अनेकों स्थानों पर प्रमाणित की है। चीनी यात्री ह्वेनसांग के यात्रा विवरण के अनुसार, सम्राट हर्षवर्धन 644 ई. के माघ मास में प्रयागराज में हुए पंचवर्षीय धर्म महासभा में भाग लिया था। इतिहासकारों का मानना है कि यही अर्द्धकुंभ का अवसर था, जिसमें सम्राट हर्षवर्धन ने अपना सर्वस्व दान कर दिया। अनेक सांस्कृतिक विद्वानों के अनुसार, 9वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य ने हिंदू संस्कृति की नींव को सुदृढ़ करने और लोक-कल्याण की दृष्टि से कुंभ का प्रचलन प्रारंभ किया था।
भगवान शंकराचार्य पुरी, द्वारका, शृंगेरी एवं ज्योतिषपीठ के रूप में चार मठों की स्थापना करने के पश्चात उनके संचालन एवं परिचालन हेतु अपने उत्तराधिकारियों को नियुक्त किया। साथ ही उन्होंने उन सभी को निर्देश दिया कि एक निश्चित अवधि के उपरांत वह आपस में मिलने तथा विचार-विमर्श के लिए एकत्रित हों। अतः कई इतिहासवेत्ताओं का कहना है कि इस आवश्यकता के अनुरूप कुंभ पर्व प्रासंगिक हुआ तथा विचार-विनिमय का माध्यम बना।
लिपिबद्ध प्रमाणों के अनुसार, कुंभ पर्व इतिहास के मध्यकाल में अपने पूर्ण विकसित रूप में था। इतिहासकार जदुनाथ सरकार के अनुसार सन् 1234 ई. में नागा संन्यासियों ने जो निर्णायक विजय प्राप्त की थी, वह कुंभ के अवसर पर थी। 17वीं शताब्दी के फारसी के धार्मिक ग्रन्थ ‘द बिस्तान ए मुजाहिब’ भी 1640 ई. में हुए एक भीषण युद्ध का वर्णन मिलता है- जो कुंभ के अवसर पर ही हुआ था।

अब मै थक गयी. आनंद मे रहें आप सब, अगर कोई इतना पढ़ लिया तो यह संदेश भी उन्हें मिलेगा
 🙏 हरहर गंगे 🙏

Sunday, 12 January 2025

"हनुमान जी की गदा : शक्ति और धर्म का अमर प्रतीक"


                  🌞राम राम🌞

हनुमान जी की गदा केवल एक अस्त्र नहीं, बल्कि धर्म, शक्ति और आत्मनियंत्रण का दिव्य
प्रतीक है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह गदा धन के स्वामी कुबेर जी ने हनुमान जी को भेंट की थी। यह अधर्म का विनाश और धर्म की स्थापना का प्रतीक है

हनुमान जी की गदा हमें यह सिखाती है, कि शक्ति का सही उपयोग तभी संभव है जब उसमें संयम विवेक और करुणा का समावेश हो। इसे धारण करने का अर्थ है कि व्यक्ति ने क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार पर विजय प्राप्त कर ली हो।
      "गदा की स्थिति और उसका अर्थ'

🔸ऊपर उठी गदा:-  समाज में सब संकट हो तो इसे संभालने के लिए निर्णय नियंत्रण और साहस की आवश्यकता होती है।

🔸गदा जमीन पर टिकी हो:-  शांति संतोष और  का प्रतीक

🔸ध्यान मग्न हनुमान और टिकी गदा:-  जब कथा उनके चरणों के पास रखी हो, तो यह पूर्ण शांति आत्मिक बल और संतुलन का प्रतीक है

       ‼️ गदा की रेखाओं का महत्व ‼️

• खड़ी रेखाएं :- रज गुण (क्रियाशीलता और ऊर्जा)
•  आड़ी रेखा :- तम गुण ( स्थिरता और गहराई)

हनुमान जी की गदा धर्म और शक्ति का प्रतीक है जो अन्याय, अधर्म का अंत कर समाज में शांति और सम्रद्धि स्थापित करती है।
 
✴️सनातन धर्म महान जहाँ धर्म, सत्य और मानवता का संगम है। ✴️

बद्रीनाथ मंदिर में आखिर क्यों नहीं बजाया जाता शंख?

🔹जानें इसके पीछे की रहस्यमयी कहानी🔹 हिंदू धर्म में किसी भी पूजा-पाठ के पहले और आखिरी में शंखनाद किया जाता है। पूजा-पाठ के सा...