Monday, 11 August 2025

22 करोड़ साल पुराने गिरनार पर्वत का इतिहास और रहस्यमय जानकारी 🧵 #Thread चार युगों की कहानी जानिये

बात करेंगे एक ऐसे पर्वत के बारे में जो हिमालय पर्वत से भी पुराना है। एक ऐसा पर्वत जिसमें बहुत सारे रहस्य छिपे हुए हैं और उनके साथ कई सारी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। भगवान दत्तात्रेय का प्रमुख स्थान इसी पर्वत को माना जाता है। इस पर्वत के चारों ओर एक ऐसी दिव्य अलौकिक शक्तियां मौजूद हैं जिनका भेद निकालना असंभव है। इस पर्वत की गुफाओं में 200 से 300 वर्षों से भी ज्यादा वर्षों के सिद्ध साधुओं और सन्यासियों रहते हैं और योग साधना करते हैं। गुजरात के सबसे रहस्यमय पर्वत गिरनार के बारे मे जानेंगे उसके इतिहास गिरनार ज्वालामुखी द्वारा बना हुआ पर्वत है। गिरनार पर्वत गुजरात राज्य के जूनागढ़ शहर से 5 किलोमीटर दूर पांच पर्वतों का समूह है। इस पर्वत के कुल मिलाकर 9999 पथ यानी स्टेप्स हैं। इस पर्वत के कुल पांच शिखर हैं जिनमें गोरख की 3600 फूट, अंबाजी की 3300 फूट, गोमुखी की 3120 फूट, जैन मंदिर की 3300 फूट और माली परब की 1800 फूट की ऊंचाई है। जहां पर 84 सिद्ध साधुओं और नौ नाथ विराजमान हैं। पौराणिक ग्रंथों में गिरनार को रैवत, रैवत कुमुद रेवता चाल और जैन धर्म में उज्जयंता के नाम से जाना जाता है।

इस पर्वत समूहों पर कुल 866 मंदिर बने हुए हैं। भवनाथ का मंदिर गिरनार पर्वत का केंद्र स्थान है। भक्त भक्तों भवनाथ मंदिर में दर्शन करके यहीं से गिरनार पर्वत चढ़ने की शुरुआत करते हैं। यह पर्वत हिमालय पर्वत से भी पुराना है। पिछले 22 करोड़ सालों से यह पर्वत यहीं स्थित है। गिरनार को कई उपमा दी गई है। गिरनार की गोद में काफी सारे रहस्यों, अलौकिक शक्तियों, आध्यात्मिक और कुदरती सौंदर्य से भरपूर 18 भार औषधि और जड़ी-बूटियों वाली वनस्पतियां हैं। यहां सिद्ध साधु, अघोरी, नागा साधुओं का स्थान है और ये लोग तपस्या करते हैं। इसीलिए इसे साधुओं का मायका भी कहते हैं। गिरनार पर्वत को भगवान दत्तात्रेय का मुख्य स्थान माना जाता है। अब हम गिरनार पर्वत के इतिहास के बारे में बात करेंगे। गिरनार के साथ कई सारी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। जैसे पहले कहा कि गिरनार पर्वत हिमालय पर्वत से भी पुराना है, इसीलिए उसे हिमालय पर्वत का पितामह भी कहा जाता है। पौराणिक साहित्य की और हमारे हिंदू देवी-देवताओं की कथाएं इस पर्वत के साथ जुड़ी हुई हैं। वैदिक ऋषियों में से भृगु और च्यवन ऋषि की कथाएं, महाभारत की पांडव कथा, कृष्ण कथा और अश्वत्थामा कथा, रामायण की राम, लक्ष्मण और हनुमान धारा की कथाएं तथा पुराणों में शैव कथा, शतक था, मृगशी था, मुकुंद कथा, रेवती कथा, भूत-प्रेत से संबंधित काली-महाकाली कथाएं, पांडव गुफा और कालिका सती अनुसूया से संबंधित और कहीं सारी पौराणिक कथाएं गिरनार से जुड़ी हुई हैं। गिरनार पर्वत पर देवी पार्वती माता अंबाजी के रूप में विराजमान हैं। पौराणिक कथा के अनुसार जब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से देवी सती के देह के 52 टुकड़े किए तब यहां पर देवी सती का पेट यानी उदर का भाग गिरा था। इसीलिए यह जगह उदयन शक्ति पीठ के नाम से जानी जाती है।
गिरनार के सान्निध्य में अंबाजी माता का अति प्राचीन और पश्चिमा अभिमुख मंदिर बना हुआ है, जिसका निर्माण 13वीं सदी में वस्तु पाल द्वारा गुजराती शैली में किया गया था। इस मंदिर के गर्भगृह में माता अंबा मुखारबिंद रूप में विराजमान हैं। दंतकथा के अनुसार ऐसा कहा जाता है कि भगवान शिव को गिरनार की भूमि हिमालय से भी अति प्रिय थी। एक बार शिवजी कैलाश पर्वत को त्याग कर यहां गिरनार की भूमि पर आए और तब साधना कर बैठ गए। वह अपनी साधना में इतने लीन हो गए कि वह अपना कैलाश पर्वत और परिवार सब कुछ भूल गए। तब माता पार्वती 33 करोड़ देवताओं के साथ शिवजी को ढूंढने निकले और ढूंढते-ढूंढते यहां गिरनार की भूमि पर पहुंचे और उन्होंने देखा कि शिवजी यहां पर विराजमान थे। माता पार्वती को भी यह भूमि बेहद अच्छी लगी। तब से भगवान शिव यहां भवनाथ महादेव के रूप में हमेशा के लिए विराजमान हो गए। माता पार्वती गिरनार की गोद में माता अंबाजी के रूप में विराजमान हो गईं और 33 करोड़ देवताओं को भी यहां विराजमान होने के लिए कहा। पौराणिक काल में भवनाथ मंदिर भवेश के नाम से जाना जाता था। आदि अनादि काल से गिरनार पर्वत के सान्निध्य में भगवान शिव का भवनाथ महादेव के रूप में निवास स्थान है। भवनाथ महादेव का उल्लेख स्कंध पुराण में भी किया गया है। भवनाथ मंदिर की बगल में पवित्र मृगी कुंड बना हुआ है जिसमें प्रत्येक शिवरात्रि पर महादेव अदृश्य रूप में इस कुंड में स्नान करने आते हैं। ऐसा कहा जाता है। श्री भवनाथ महादेव के दर्शन मात्र से ही भक्तों के दुख चले जाते हैं। गिरनार पर्वत के प्रवेशद्वार समान भवनाथ मंदिर के गर्भगृह में एक स्वयंभू भवनाथ महादेव का शिवलिंग है और उसके बाजू में दूसरा एक शिवलिंग है जो चिरंजीवी अश्वत्थामा द्वारा स्थापित किया गया था। ऐसा कहा जाता है कि आज भी अश्वत्थामा महाशिवरात्रि के दिन अदृश्य रूप में मृगी कुंड में स्नान करने आते हैं। मोक्ष दायनी गंगा गिरनार पर्वत पर गोमुखी गंगा के रूप में बहती है। इसीलिए यह स्थान अति पवित्र है।
पौराणिक कथा के अनुसार श्री सत्यम ऋषि ने भगवान श्री कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए 1000 साल तक तपस्या की, पर फिर भी भगवान श्री कृष्ण प्रसन्न न हुए। तब आकाशवाणी हुई कि तुमने बाल्यावस्था में पानी पीने जाती हुई प्यासी गाय को लाठी मारकर पानी नहीं पीने दिया था। इसी पाप के वजह से मैं तुम्हें दर्शन नहीं दे सकता। यह सुनकर जब ऋषि ने देह त्याग करने का विचार किया तब फिर एक बार आकाशवाणी हुई कि तुम रेवत अर्थात गिरनार पर जाकर तपस्या करो, तुम्हें पापों से मुक्ति मिलेगी। आकाशवाणी सुनकर ऋषि ने रेवत पर्वत जाकर 1000 साल तक तपस्या की। तपस्या से प्रसन्न होकर मां अंबा ने दर्शन दिए और इसके साथ ही ऋषि ने मां गंगा की स्तुति की। तब मां गंगा गोमुखी में से प्रकट हुईं। ऋषि ने इस गोमुखी गंगा के जल से स्नान किया और अपने सारे पापों से मुक्त होकर उसने वैकुंठ में वास मिला। गिरनार स्थित बहती गोमुखी गंगा में स्नान करने से स्वर्ग के कल्पवृक्ष समान सुख और पुण्य मिलता है। गिरनार पर्वत भगवान दत्तात्रेय की साधना भूमि है। यहां के कण-कण में गुरु दत्तात्रेय की अनुभूति होती है। पूरे भारत देश में सिर्फ गिरनार ही एक मात्र स्थान है जहां गुरु दत्तात्रेय के चरणारविंद बने हुए हैं। ऐसा कहा जाता है कि ब्रह्मा, विष्णु, महेश के स्वरूप में प्रकट हुए गुरु दत्तात्रेय ने गिरनार में 12000 साल तपस्या की थी। गिरनार के शिखर पर बना हुआ गुरु दत्तात्रेय का त्रिकोण आकार का मंदिर त्रेतायुग के समय का है। मगध वंश का नाश करने के बाद जब सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य ने समग्र भारत पर विजय पताका लहराते लहराते ईसा पूर्व 322 के बाद में चंद्रगुप्त मौर्य ने सौराष्ट्र भी जीत लिया था। उस समय सौराष्ट्र का पाटन नगर जूनागढ़ था। चंद्रगुप्त ने यहां पर पुष्यनगरी…यहां सुवर्ण सिकता नदी पर सुदर्शन नामक तालाब का निर्माण करवाया था। सम्राट अशोक के सुबा तुसाच ने उसमें नहरें खुदवा कर सिंचाई का काम शुरू करवाया था। स्कंदगुप्त के पुत्र दत्त नामक सूबा ने अतिवृष्टि से टूटे हुए सुदर्शन तालाब को फिर से बनाया था। मौर्य वंश के राजाओं द्वारा लिखे हुए शिलालेख यहां गिरनार पर्वत पर हैं। ईसा पूर्व 1152 के आसपास राजा कुमारपाल ने यात्रियों के लिए गिरनार पर्वत में सीढ़ियां बनाईं। बदलते समय के साथ यात्रियों की सरलता के लिए और सुविधाएं उपलब्ध कराई गईं। आज गिरनार पर्वत तक पहुंचने के लिए गुजरात सरकार द्वारा रोप वे पुरंग टोली की व्यवस्था की गई है। गिरनार के साथ सती राणिक देवी की कथा गुजरात में बहुत प्रचलित है। 10 से 11वीं सदी के दौरान जब राजा सिद्धराज जयसिंह ने जूनागढ़ पर आक्रमण कर वहां के राजा रा खेंगर को मारकर उसकी रानी राणिक देवी को ले जा रहा था तब सती राणिक देवी ने अपने भाई गिरनार के पास मदद मांगी थी। सती राणिक देवी ने गिरनार को कहा कि गोजरा गिरनार बलम तेरी ने कियो मरता रा खेंगर खड़ी खांग न थयो। इसका अर्थ यह है कि अपने राजा को मरते हुए देखकर भी अभी भी तुम खड़े हो। यह सुनकर गिरनार पर्वत लड़खड़ा लगा। उसके पत्थर नीचे गिरने लगे। धीरे-धीरे वह पर्वत पूरे तरीके से गिरने वाला था। अगर यह पर्वत के पत्थर लगातार गिरने लग गए तो पूरा जूनागढ़ शहर और उनके लोगों का नाश हो जाएगा। ऐसा सोचकर रानी राणिक देवी ने अपने दोनों हाथ ऊपर करके अपने भाई गिरनार पर्वत को कहा रुको गिरनार कहकर शांत रहने को और ना गिरने को कहा और गिरनार पर्वत की गिरती हुई शिला वहां स्थिर हो गई। कुछ शिला तो लटकी हुई हैं मानो वह अभी गिरेंगी। आज भी ऐसे लटके हुए पत्थर हैं और उन पर सती राणिक देवी के हाथ के निशान हैं। सुवर्ण रेखा नामक नदी गिरनार की सबसे पौराणिक नदी है। पृथ्वी को पावन करने के लिए नागराजा की आज्ञा से पाताल में से यहां गिरनार क्षेत्र में अवतरित हुई थी। भगवान कृष्ण के भाई बलराम की शादी रेवती से हुई थी। देवी रेवती भी इस गिरनार पर्वत से जुड़ी हुई है। अब हम गिरनार के पर्यटन स्थल के बारे में बात करेंगे। गिरनार पर्वत पांच पर्वतों का समूह है। इस पर्वत माला में पौराणिक गुफाएं, कुएं…कुवां, मंदिर, कुंड बने हुए हैं। गिरनार का प्रथम शिखर पर जैन देरासर बना हुआ है। वह भगवान नेमिनाथ के चरणारविंद से पावन हुआ एक दीक्षा कल्याणक, ज्ञान कल्याणक और मोक्ष कल्याणक तीर्थ स्थान है। परम शांति की अनुभूति कराता और मोक्ष का द्वार माने जाते इस देरासर में 14 जैनालय बने हुए हैं जो अति प्राचीन कलात्मक हैं। इस देरासर का निर्माण वस्तु पाल तेजपाल द्वारा किया गया है जिसमें भगवान नेमिनाथ का जैनालय प्रमुख स्थान पर है। श्री नेमिनाथ भगवान के मंदिर के प्रांगण में अधिष्ठात्री देवी माता अंबाजी की मूर्ति है। दक्षिण द्वार में प्रवेश करते ही इस जैनालय में अत्यंत आकर्षक रंग मंडप आता है जो 41.6 फूट चौड़ा है और 44.6 फूट लंबा है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान श्री नेमिनाथ की श्याम वर्ण प्रतिमा है जिसके दर्शन मात्र से ही भक्तों की सारी थकान दूर हो जाती है और केवल परम शांति की अनुभूति होती है। भगवान नेमिनाथ की प्रतिमा दुनिया की सबसे प्राचीन प्रतिमाओं में से एक है। गिरनार पर्वत की सबसे ऊंची शिखर गुरु गोरखनाथ की है जहां पर गुरु दत्तात्रेय के पावन चरणारविंद हैं। पौराणिक कथा के अनुसार कलयुग की आरंभ के समय भगवान विष्णु ने कलयुग की यातनाएं और पृथ्वी पर होने वाली आपदाओं के निराकरण के लिए योगियों में श्रेष्ठ ऐसे नव नारायण को आमंत्रित किया। यह नव नारायण नव नाथों के रूप में भगवान विष्णु के ही अवतार हैं। नाथ संप्रदाय के नवनाथ में से एक गुरु गोरखनाथ यहीं पर विराजमान हैं। यहां उनका दिव्य एवं अखंड यज्ञ और उनके पावन चरणारविंद मौजूद हैं जो युगों-युगों से भक्तों को पावन करते आए हैं। यहां पर भगवान दत्तात्रेय का त्रिकोण आकार का प्राचीन मंदिर भी बना हुआ है। इस पवित्र तीर्थ स्थान पर 26 फूट ऊंचा और 151 किलो के जैन का एक धर्म ध्वजा स्तंभ स्थापित है। यहां ध्वजा स्तंभ गिरनार की पवित्रता में दिव्यता अपर्वण करता है। गिरनार पर्वत चढ़ने से पहले भवनाथ मंदिर के पास ही मृगी कुंड बना हुआ है जहां प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि पर नागा साधुओं और सन्यासियों स्नान करते हैं। यह साधु सिर्फ शिवरात्रि के दिन ही इस कुंड में स्नान करने के लिए डुबकी लगाते हैं। मृगी कुंड में अति प्राचीन नदी सुवर्ण रेखा का जल बहता है और इसका जल अमृत समान है। महाशिवरात्रि के दिन मृगी कुंड में सिद्ध साधुओं, अघोरी बाबाओं का शाही स्नान गिरनार की तलहटी में आध्यात्मिकता का अनुभव कराता है।
इस कुंड में पवित्र नदी सुवर्ण रेखा का जल बहता है। इसीलिए इस अमृत समान जल के स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। नवनाथ और चौ सिद्धों के स्थानक ऐसे गिरनार पर भरत, हरि, गोपीचंद, अश्वत्थामा का वास है और ऐसा कहा जाता है कि शिवरात्रि के दिन मृगी कुंड में होने वाले शाही स्नान में यह चिरंजीवी महादेव भी साधु रूप में स्नान करने के लिए आते हैं। इस शाही स्नान में जितने भी साधुओं ने डुबकी लगाई होती है उसमें से एक साधु बाहर नहीं निकलता क्योंकि उसे मोक्ष की प्राप्ति हो चुकी होती है। गिरनार पर्वत पर रहस्यमय कुंड बने हुए हैं जैसे कि भीम कुंड, गिजप कुंड, कमंडल कुंड और दामोदर कुंड। भीम कुंड का जल गर्मी के मौसम में भी शीतल रहता है। यह कुंड जैन देरासर के पास बना हुआ है। गिजप का जल बहता है। इस कुंड के पानी में स्नान करने और उसका पानी पीने से हम रोगमुक्त हो जाते हैं। इस कुंड का पानी स्वास्थ्य के लिए गुणकारी है। कमंडल कुंड का निर्माण भगवान दत्तात्रेय के यहां पर कमंडल फेंकने से हुआ था। इस कुंड में अखूट जल है। दामोदर कुंड की बात करें तो आदि कवि नरसिंह मेहता प्रातःकाल भजन गाते-गाते यहां स्नान करने आते थे। ब्रह्माजी द्वारा निर्मित दामोदर कुंड में गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु, कावेरी, शिप, चर्मन, आदि, गोदावरी आदि पवित्र नदियों का जल बहता है। इस कुंड में मनुष्य के अस्थियां विसर्जित करने से वह जल्द ही पिघल जाती हैं और उनकी आत्मा को मोक्ष प्राप्त होता है। इसीलिए लोग इस कुंड में अस्थियां विसर्जित करने आते हैं। यह जल काफी शुभ माना जाता है। गिरनार में कश्मीर की अनुभूति करता स्थल पत्थर चट्टी की जगह है। यह गिरनार की बेहद खूबसूरत जगह है और रहस्यमय भी। ऐसा कहा जाता है कि रामानुज संप्रदाय के श्री नरहर स्वामी 200 साल पहले गिरनार पर तपस्या करने के लिए आए थे। यहां पर उन्होंने नुकीले पत्थरों के बीच कड़ी तपस्या की थी। इस जगह पर अपनी भक्ति साधना की दिव्यता अपर्वण करके 125 वर्ष की आयु में श्री नरहरी स्वामी देव हो गए थे और गिरनार के पर्वतों में ही वह समा गए थे। इसके अलावा गिरनार पर्वत के विस्तार में ऊपर कोटि किल्ला, नीचे कोटि किल्ला, ध्वका बारी, बौद्ध गुफाएं, राणिक देवी के पंजे की निशानियां, अड़ी कड़ी वाव, नाघणि कुवा, अनाज कोठा, नरसिंह मेहता का चौराहा, अशोक शिलालेख आदि जैसे पौराणिक स्थानों बने हुए हैं। गिरनार पर्वत की दो महत्वपूर्ण बातें बहुत प्रख्यात हैं: महाशिवरात्रि का मेला और लीली परिक्रमा। गिरनार की गोद में भवनाथ की तलहटी में यहां प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि बड़े धूमधाम से मनाई जाती है। यहां गिरनार के अघोरी सिद्ध संतों, साधुओं, नागा साधुओं, सन्यासियों का मेला लगता है और यही साधु संतों को देखने के लिए देश के कोने-कोने से लोग यहां यह मेला देखने आते क्योंकि यही एक ऐसा दिन है जब यह सारे अघोरी सिद्ध संत साधु अपनी गुफा से निकलकर बाहर आते हैं। महाशिवरात्रि पर आयोजित होने वाले इस मेले को भवनाथ का मेला कहा जाता है। यह मेला प्रतिवर्ष महा दिवस नौमी तिथि से शुरू होकर महा दिवस अमावस्या यानी कि शिवरात्रि के दिन खत्म होता है। इस मेले के साधु संस्कृति और समाज का पवित्र त्रिवेणी संगम देखने को मिलता है और चारों ओर जय गिरनारी, गिरनारी और महादेव महादेव की गूंज सुनाई देती है। मेले की शुरुआत भवनाथ मंदिर पर ध्वजा चढ़ा कर होती है और पूर्णाहुति मृगी कुंड में शाही स्नान से खत्म होती है। मेले में यह इन साधुओं की रबड़ी शोभा यात्रा निकलती है जिसमें यह सब साधु लाठी, तलवार, भाला, पट्टे बाजी से कतब दिखाते हैं। अंग पर भभूत लगाए हुए यह जटाधारी साधु इस मेले का मुख्य आकर्षण होते हैं। अंत में यह सब साधु मृगी कुंड में शाही स्नान कर की लगाकर इस शिवरात्रि का समापन करते हैं। इस कुंड में सब नागा साधु स्नान करते हैं और इनमें से एक को मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है। अब बात करते हैं गिरनार पर्वत की लीली परिक्रमा की। जो लोग यह पर्वत चढ़ नहीं सकते वे लोग गिरनार पर्वत की चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं जिसे लीली परिक्रमा कहा जाता है। इसकी शुरुआत कार्तिक शुद्ध एकादशी तिथि से शुरू होकर पूनम यानी कि देव दिवाली तक चलती है। इस परिक्रमा में गिरनार के पांचों पर्वतों की प्रदक्षिणा करते हुए 36 किलोमीटर तक का रास्ता बीच जंगल में से काटना पड़ता है। यह परिक्रमा कुल पांच दिनों की होती है। यात्रियों अपने साथ रसोई का सामान अपने साथ में ले जाते हैं। पूरे दिन जंगल में से रास्ता काटते हैं और रात्रि को जहां पहुंचे हों वहां ठहर जाते हैं। पहले के समय में सबको खाना बनाने का सामान साथ के जाना पड़ता था पर अब तो परिक्रमा के पूरे रास्ते में संस्थाओं द्वारा भोजन, शरबत के कैंप, अन्न क्षेत्र हर जगह पर पाए जाते हैं जिससे यात्रियों को खाने के मामले में ज्यादा दिक्कत नहीं होती। परिक्रमा के दौरान जंगल में बहुत सी प्राचीन जगहें देखने को मिलती हैं और इनका एक अलग ही अनुभव होता है। इस परिक्रमा का इतिहास 24000 साल पुराना है। पहले ऋषि-मुनि यह परिक्रमा करते थे और अब मनुष्यों द्वारा यह परिक्रमा की जाती है। अब हम गिरनार पर्वत के बारे में कुछ रोचक बातें करेंगे। हिमालय से भी पुराने इस गिरनार पर्वत में काफी सारे गुप्त रहस्यों, अलौकिक शक्तियां, दिव्यता, आध्यात्मिकता और कुदरती सौंदर्य से भरपूर 18 भार वनस्पतियों और जड़ी-बूटियों का खजाना है। गिरनार को…

स्त्रीपुर त्याग कर तप साधना की थी। गिरनार के सान्निध्य में सदैव आदेश का नाद बजता है। आदेश नाथ संप्रदाय का अति पावन कारी मंत्र है। आदेश का मतलब महादेव। गिरनार की गुफाओं में बस्ते नाथ संप्रदाय के सिद्ध साधुओं, सन्यासियों अलख निरंजन बोल हैं। अलख का मतलब शिव होता है और निरंजन का मतलब परमात्मा। इसीलिए अलख निरंजन का अर्थ है निर्गुण निराकार परमात्मा। शिव निर्गुण है, निराकार है। इसीलिए नाथ पंथ के साधु अलख निरंजन बोलते हैं। गिरनार पर्वत में 18 धार वनस्पतियां मौजूद हैं। एक धार का मतलब है 20 करोड़ 21 लाख 76 हजार जितनी संख्या और यहां गिरनार में तो अठारह धार जितनी अधिक संख्या में कुदरती वनस्पतियां हैं जिसमें औषधियां, जड़ी-बूटियां शामिल हैं जिससे काफी सारी बीमारियों का इलाज हो सकता है। इन 18 धार वनस्पतियों में चार धार फल वाले वृक्ष, चार धार बिना फल के वृक्ष, चार धार कांटे वाले वृक्ष और छह धार लता जैसी झाड़ियों का समावेश होता है। ऐसा कहा जाता है कि इस गिरनार पर्वत की जगह पहले समुद्र था और समय जाने के बाद वह समुद्र द्वारका की ओर चला गया था। इसीलिए आज भी गिरनार में समुद्री वनस्पतियां पाई जाती हैं। गिरनार के पांचों पर्वतों में कुल मिलाकर 866 मंदिर हैं। सभी पर्वत के दादर एक पर्वत के शिखर से दूसरे की ओर ले जाता है। अब सरकार द्वारा रोप वे की सुविधा भी है जिससे अंबाजी पर्वत तक पहुंच सकते हैं। गिरनार और दातार डूंगर के बीच नवनाथ बना हुआ है जिसे 84 सिद्ध की टेकरी कहते हैं और अब यह तट गिरिया डूंगर के नाम से जाना जाता है। गिरनार में ऐसी वनस्पतियां हैं जिसकी जड़ों को पका के खिचड़ी खाने से छह महीनों तक भूख नहीं लगती। गिरनार की पहाड़ियों में अनेकों गुफाएं और गुप्त स्थानों हैं जहां पर अनेकों साधु, संत, महंत, सिद्ध, योगी, अघोरी महात्माओं ने बस कर अपनी तप साधना होम को सिद्ध किया है। आज भी गिरनार की गुफाओं में 200 से 300 सालों से भी ज्यादा समय से आत्म ध्यान में लीन विभूतियां साधु पाए जाते हैं। जैन ग्रंथों तथा अन्य ग्रंथों के अनुसार यक्ष आदि अनेक आत्माएं भी यहां गिरनार में बसती हैं। गिरनार में बसते सिद्धों, महंतों, जटाधारी साधुओं के चमत्कारों की काफी सारी बातें वहां के लोगों से और यात्रियों से सुनने को मिलती हैं। एक चमत्कारी किस्सा सुनते हैं। एक बार कुछ यात्रीगण गिरनार में रास्ता भूल गए थे तब वह लोग किसी साधु की गुफा के पास पहुंच गए थे। उस योगी महात्मा ने उन लोगों को सहानुभूति देकर शांत से बैठाया और खाने के लिए वृक्ष के कुछ पत्ते दिए। वे पत्ते उन लोगों को स्वाद में पापड़ की तरह लगे और उससे उन लोगों की भूख भी मिट गई। बाद में उस योगी महात्मा ने उन लोगों के जख्मों की सार संभाल करके उन लोगों को किसी रास्ते तक छोड़ने गए और वे लोग अपनी असली जगह पर आ गए थे। दूसरे ही दिन वे लोग यह गुफा के स्थान पर आए तो वहां ना कोई गुफा थी और ना कोई योगी। गिरनार की शिला में करोड़ों साल पुरानी वनस्पतियों के अवशेष मिलते हैं। गिरनार की गुफाओं में बसते नागा साधुओं सिर्फ महाशिवरात्रि के दिन ही बाहर निकलते हैं। वे लोग भवनाथ के मेले में अपने अकल्पनीय करतब से सबको मंत्रमुग्ध कर देते हैं और बाद में मृगी कुंड में शाही स्नान कर वापस गुफा में चले जाते हैं। गिरनार में साक्षात गुरु दत्तात्रेय की अनुभूति होती है। गिरनार की कथा निधि में वह से प्रमुख स्थान पर है। योगी मार्ग में जिसकी सर्वोच्च देव के रूप में पूजा होती है वह दत्तात्रेय योगियों और नाथ संप्रदाय के गुरु हैं। उसी तरह भूत-प्रेत आदि के निवारण कर्ता एवं मोक्ष दाता भी हैं। गिरनार को कथा निधि कहा गया है। कथा का मतलब कहानी और निधि का मतलब खजाना। गिरनार के साथ काफी सारी पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं जिसका मुख्य माध्यम गिरनार पर्वत है। हमारे हिंदू धर्म के 33 करोड़ देवी-देवताओं से लेकर उज्जैन का राजा विक्रमादित्य और उसके बड़े भाई राजा भर्तृहरि भी गिरनार के साथ जुड़े हुए हैं। राजा भर्तृहरि उज्जैन में अपना सारा राजपाठ छोड़कर यहां गिरनार में तप साधना करने आए थे। आज भी यहां उनके नाम की गुफा भर्तृहरि गुफा और स्थान भर्तृहरि स्थान मौजूद है। तो यह बात थी हमारे गुप्त गिरनार पर्वत की जो काफी रहस्यमय कथाओं और अलौकिक शक्तियों से भरपूर है और करोड़ों सालों से यहां अपने रहस्यों के साथ बैठा हुआ है। गिरनार के बारे में लिखने जाएं तो पन्ने भी कम पड़ेंगे क्योंकि उनके बारे में लिखना और उनका इतिहास भी उसी की तरह गहरा और बड़ा है। एक ऐसा पर्वत जो सदियों से संतों, महंतों, जो अघोरियों, साधुओं का निवास स्थान रहा है और खुद महादेव का भी यह प्रिय स्थान है। आप कभी गुजरात जाओ तो जूनागढ़ के गिरनार पर्वत के दर्शन करे


Thursday, 31 July 2025

जब देव नरायण सोते है तब क्या होता है?


जब नारायण सोते हैं, तो सृष्टि साँस लेती है।

यह चित्र केवल कला नहीं है - यह एक ब्रह्मांडीय सत्य है। शेषनाग पर योग-निद्रा में विष्णु... उनकी नाभि से एक कमल खिलता है... और उनका दिव्य हाथ शिवलिंग को स्पर्श करता है।
इसका क्या अर्थ है?

1. विष्णु - ब्रह्मांड के रक्षक।
वे अनंत शेषनाग पर लेटे हैं, क्षीरसागर (चेतना का सागर) पर तैर रहे हैं।
यह "निद्रा" नहीं है जैसा कि हम जानते हैं।
यह योग निद्रा है - दिव्य शांति, जहाँ सृष्टि रक्षक के भीतर विश्राम करती है।

2. कमल और ब्रह्मा - सृष्टि का प्रतीक
विष्णु की नाभि से एक कमल खिलता है, जिसमें सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी विराजमान हैं।
यह दर्शाता है कि सृष्टि का स्रोत अराजकता नहीं - बल्कि शांति और दिव्य व्यवस्था है।
ब्रह्मांड मौन से उत्पन्न होता है, शोर से नहीं।

3. शिवलिंग - एक शाश्वत मिलन
ध्यान से देखें: विष्णु का हाथ शिव के प्रति गहरी श्रद्धा से भरा है।
यह सनातन धर्म की अद्वैतता को दर्शाता है।
हरि और हर प्रतिद्वंद्वी नहीं हैं -
वे सृजन और संहार के नृत्य में शाश्वत सहयोगी हैं।

4. शेषनाग - काल की अनंत कुंडली
विष्णु के नीचे स्थित अनेक फन वाला सर्प केवल आधार नहीं है।
यह काल (समय) का प्रतिनिधित्व करता है - जो सदैव घूमता रहता है, घूमता रहता है।
यहाँ तक कि काल भी ईश्वर के चरणों के नीचे विश्राम करता है।

5. कमल पर ॐ - प्रणव मंत्र
खिलते हुए कमल पर ॐ (ॐ) का प्रतीक अंकित है -
वह आदिम कंपन जिससे समस्त अस्तित्व की उत्पत्ति होती है।
यह विष्णु (पालक), ब्रह्मा (सृष्टिकर्ता) और ब्रह्मांडीय ध्वनि को एक दिव्य सार में जोड़ता है।
6. विष्णु का शिव को स्पर्श - अहंकार से परे भक्ति। 
इस क्रिया में, भगवान विष्णु स्वयं शिव के शाश्वत निराकार स्वरूप के समक्ष नतमस्तक होते हैं।
अहंकार नष्ट होता है, सत्य एकता को प्राप्त करता है। हरि-हर एकत्व है।
सांप्रदायिकता में फँसे प्रत्येक साधक के लिए एक संदेश।

7. सनातन धर्म अलगाव के बारे में नहीं है।
यह दिव्यता में एकता के बारे में है।
विष्णु के बिना शिव नहीं। ब्रह्मा के बिना विष्णु नहीं। विनाश के बिना सृजन नहीं। मौन के बिना ध्वनि नहीं।
यह कला ब्रह्मांडीय संतुलन के चक्र को दर्शाती है।

8. आज यह क्यों महत्वपूर्ण है:
आधुनिकता की अराजकता में - हम स्थिरता को भूल गए हैं।
धार्मिक शोर में - हम एकता भूल गए हैं।
अहंकार में - हम समर्पण भूल गए हैं।
लेकिन यह एक छवि फुसफुसाकर याद दिलाती है -
ईश्वर एक है। नाम अनेक हैं। मार्ग अनेक हैं। सत्य एक है।

अंतिम शब्द, 
यह पौराणिक कथा नहीं है। यह ब्रह्मांडीय मनोविज्ञान है। यह केवल भक्ति नहीं है।
यह धार्मिक गहराई है। आप केवल विष्णु या शिव की पूजा नहीं करते। आप उनके जैसे हो जाते हैं 
मौन, शक्तिशाली, कालातीत।

Thursday, 1 May 2025

बद्रीनाथ मंदिर में आखिर क्यों नहीं बजाया जाता शंख?


🔹जानें इसके पीछे की रहस्यमयी कहानी🔹

हिंदू धर्म में किसी भी पूजा-पाठ के पहले और आखिरी में शंखनाद किया जाता है। पूजा-पाठ के साथ हर मांगलिक कार्यों के दौरान भी शंख बजाया जाता है। शंख को सुख-समृद्धि और शुभता का कारक माना गया है।

कहते हैं कि शंख बजाए बिना पूजा अधूरी मानी जाती है। वहीं चार धामों में से एक बद्रीनाथ में शंख बजाने की मनाही है।

बद्रीनाथ मंदिर में भगवान विष्णु के अवतार बद्रीनारायण की पूजा की जाती है। यहां उनकी 3.3 फीट ऊंची शालिग्राम की बनी मूर्ति है।

माना जाता है कि इस मूर्ति की स्थापना शिव के अवतार माने जाने वाले आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में की थी।

माना जाता है कि भगवान विष्णु की यह मूर्ति यहां स्वयं स्थापित हुई थी, कहते हैं इसी स्थान पर भगवान विष्णु ने तपस्या की थी।

बद्रीनाथ में शंख न बजाने के पीछे कथा प्रचलित है। जिसके अनुसार जब हिमालय में दानवों का बड़ा आतंक था तब ऋषि मुनि न मंदिरों में ना ही किसी और स्थान पर भगवान की पूजा अर्चना कर पाते थे।

राक्षसों के आतंक को देखकर ऋषि अगस्त्य ने मां भगवती को मदद के लिए पुकारा, जिसके बाद मां कुष्मांडा देवी के रूप में प्रकट हुईं और अपने त्रिशूल और कटार से राक्षसों को खत्म कर दिया।

हालांकि मां कुष्मांडा के प्रकोप से बचने के लिए दो राक्षस आतापी और वातापी वहां से भाग निकले। इसमें से आतापी मंदाकिनी नदी में छुप गया और वातापी बद्रीनाथ धाम में जाकर शंख के अंदर घुसकर छुप गया। जिसके बाद से यहां शंख नहीं बजाया जाता।

बद्रीनाथ में शंख न बजाने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण भी है। जिसके अनुसार अगर यहां शंख बजाया जाए तो उसकी आवाज बर्फ से टकराकर ध्वनि पैदा कर करेगी जिससे बर्फ में दरार पड़ सकती है और हिमस्खलन का खतरा भी बढ़ सकते है। इसलिए यहां शंख नहीं बजाया जाता।

जय बद्री विशाल 🙏🚩

Tuesday, 29 April 2025

क्या ब्रह्माजी के पैरों से शूद्रों का जन्म हुआ! सच क्या है?



दलितों को उकसाकर हिंदू धर्म से अलग करने में जुटे लोग अक्सर दलील देते हैं कि हिंदू धर्म की मान्यता है कि शूद्रों का जन्म ब्रह्मा के पैरों से हुआ है। इस आधार पर जाति व्यवस्था को भेदभाव वाला साबित करे की कोशिश लगातार चलती रहती है। दरअसल ये बात पूरी तरह गलत है। पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मंडल का एक प्रमुख सूक्त यानी मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष का वर्णन किया गया है और उसके अंगों का वर्णन है। “ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥ इसका अर्थ बताया जाता है कि उस विराट परमात्मा के मुख से ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई, बाहुओं से क्षत्रियों की, उदर से वैश्यों की और पदों यानी पैरों से शूद्रों की उत्पत्ति हुई।

क्या है सच?

सच्चाई जानने के लिए आपको मंत्र 13 से पहले मंत्र 12 को पढ़ना होगा। इस मंत्र में पूछा जाता है कि कौन मुख के समान है? कौन हाथ के समान, कौन पेट के समान और कौन पैर के समान? “यत्पुरुषं व्यदधुः कतिधा व्यकल्पयन्। मुखं किमस्य कौ बाहू का उरू पादा उच्येते॥12॥” इसके जवाब में बताया जाता है कि ब्राह्मण (शिक्षक और बुद्धिजीवी) इस शरीर संरचना के मुख हैं, क्षत्रिय (रक्षक) हाथों के समान, वैश्य (पालन करने वाले) पेट के समान और शूद्र (श्रमिक) पैरों के समान हैं। यानी समाज के अलग-अलग हिस्सों को उनकी जिम्मेदारी के हिसाब से उनकी तुलना मानव शरीर से की गई है। इसमें पैदा करने या उत्पन्न होने जैसी कोई बात ही नहीं है। अक्सर समाज की तुलना मानव शरीर से की जाती है।

वेदों में शूद्र

चारों वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग 20 बार आया है। कहीं भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है। वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने, उन्हें वेदों का अध्ययन करने से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है। वेदों में अति परिश्रमी कठिन कार्य करने वाले को शूद्र कहा है (“तपसे शूद्रम” यजुर्वेद 30.5), इसीलिए पुरुष सूक्त शूद्र को मानव समाज का आधार स्तंभ कहता है। इसका जन्म से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि ऐसे सैकड़ों उदाहरण भरे पड़े हैं जहां शूद्र माता-पिता से पैदा हुआ कोई व्यक्ति विद्वान पंडित बना। लेकिन वामपंथी कांग्रेसी शिक्षाविदों ने एक साजिश के तहत लगातार यह भ्रम पैदा किया कि वैदिक व्यवस्था में समाज के श्रमिक वर्ग का अपमान किया गया है और उसे अछूत माना गया है।

जागरूक हिन्दू सशक्त सनातन

Wednesday, 26 March 2025

भगवान श्री हरि विष्णु जी के दिव्य अवतार

भगवान विष्णु जी  सृष्टि के पालनहार

1️⃣ परिचय – हिंदू धर्म में भगवान विष्णु को त्रिदेवों में से एक माना जाता है, जो सृष्टि के पालनहार हैं। वे संसार की रक्षा और धर्म की स्थापना के लिए समय-समय पर अवतार लेते हैं।
2️⃣ श्रीहरि विष्णु का स्वरूप – उनका वर्ण नीलवर्ण है, वे चार भुजाओं वाले हैं। उनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म होते हैं। उनकी पत्नी देवी लक्ष्मी हैं और वाहन गरुड़।
3️⃣ दशावतार – जब भी अधर्म बढ़ता है, तब भगवान विष्णु अवतार धारण करते हैं। उनके दस प्रमुख अवतार हैं:
मत्स्य
कूर्म
वराह
नृसिंह
वामन
परशुराम
राम
कृष्ण
बुद्ध
कल्कि (आने वाला अवतार)
4️⃣ श्रीहरि का महत्व – वे न केवल सृष्टि के पालनकर्ता हैं, बल्कि भक्ति, प्रेम, और करुणा के प्रतीक भी हैं। विष्णु सहस्रनाम में उनके 1000 नामों का वर्णन मिलता है।
5️⃣ विष्णु पूजन एवं मंत्र –
“ॐ नमो नारायणाय”
“ॐ विष्णवे नमः”
“ॐ श्रीं विष्णवे नमः”
6️⃣ वैष्णव संप्रदाय – जो भक्त विष्णु की आराधना करते हैं, उन्हें वैष्णव कहा जाता है। भारत में कई प्रमुख वैष्णव संप्रदाय हैं, जैसे कि श्रीसम्प्रदाय (रामानुजाचार्य), मध्व सम्प्रदाय, गौड़ीय वैष्णव (चैतन्य महाप्रभु)।
7️⃣ विष्णु जी के प्रमुख मंदिर –
तिरुपति बालाजी (आंध्र प्रदेश)
श्री रंगनाथस्वामी मंदिर (तमिलनाडु)
बद्रीनाथ धाम (उत्तराखंड)
जगन्नाथ पुरी (ओडिशा)
8️⃣ गीता में विष्णु तत्व – श्रीकृष्ण (विष्णु के अवतार) ने अर्जुन को गीता में विराट स्वरूप दिखाया था, जिसमें पूरी सृष्टि समाहित थी।
भगवान विष्णु की भक्ति से व्यक्ति को मोक्ष प्राप्ति का मार्ग मिलता है।

🙏 जय श्री हरि विष्णु जी 🙏

Wednesday, 26 February 2025

शिव शंकर की तीसरी आँख का रहस्य ?

शिव की तीसरी आंख

महादेव को तीसरी आंख को लेकर कई कथाएं प्रचलित है उनमें से एक कथा के अनुसार जब कामदेव ने भोलेनाथ की तपस्या को भंग करने की कोशिश की थी तब शिव जी की तीसरी आंख उत्पन्न हुई थी और उसी से उन्होंने कामदेव को भस्म कर दिया था। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार माता पार्वती ने जब पीछे से आकर भोलेनाथ की दोनों आंखों को अपने हाथों से बंद कर दिया था तब समस्त संसार में अंधकार छा गया था। तब संसार को वापस प्रकाशमय करने के लिए शिव जी की तीसरी आंख खुद ही खुल गयी थी और फिर से चारों ओर रौशनी ही रौशनी हो गयी थी।

• कहते हैं शिव जी की एक आंख सूर्य है, तो दूसरी आंख चंद्रमा इसलिए जब पार्वती जी ने उनके नेत्रों को बंद किया तो चारों और अन्धकार फैल गया था।

दिव्य दृष्टि का प्रतीक कहते हैं शिव जी की वीसरी आंख उनका कोई अतिरिक्त ऐसा नहीं है, बल्कि ये उनकी दिव्य दृष्टि का प्रतीक है जो आत्मज्ञान के लिए बेहद जख्खी जैसे शिव जी को संसार का संहारक कहा जाता है जब जब संकट के बादल छाए तब तब भोलेनाथ ने पूरे संसार को विपदा से बचाया है। माना जाता है कि महादेव की ठीसरी आंख से कुछ भी बच नहीं सकता। उनकी यह आंख तब तक बंद रहती है जब तक उनका मन शांत होता है किन्तु जब उन्हें क्रोध आता है तो उनके इस नेत्र की अग्नि से कोई नहीं बच सकता।

Tuesday, 14 January 2025

🌞 मकर संक्रांति: पुराणों में वर्णित एक दिव्य यात्रा और उसका गहन महत्व


मकर संक्रांति का पर्व भारतीय संस्कृति और सनातन धर्म में विशेष स्थान रखता है। यह केवल खगोलीय घटना नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, धार्मिक, और पौराणिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण दिन है। आइए इसे गहन पौराणिक संदर्भों और कथाओं के माध्यम से समझें।


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🌄 सूर्य देव का मकर राशि में प्रवेश: पौराणिक महत्व

मकर संक्रांति का उल्लेख वेदों, उपनिषदों और पुराणों में मिलता है। ब्रह्मांडीय दृष्टि से, यह दिन सूर्य के धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करने का प्रतीक है, जिसे "उत्तरायण" कहा जाता है। महाभारत के अनुसार, उत्तरायण काल को देवताओं का दिन और दक्षिणायन को रात्रि माना गया है। यह काल शुभता और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करता है। भीष्म पितामह ने भी अपने देहत्याग के लिए उत्तरायण की प्रतीक्षा की थी।

स्कंद पुराण और पद्म पुराण में उल्लेख मिलता है कि मकर संक्रांति के दिन सूर्य अपने पुत्र शनि देव (मकर राशि के स्वामी) के घर जाते हैं। यह पिता-पुत्र के मिलन का प्रतीक है, जिससे रिश्तों में सामंजस्य और प्रेम का संदेश मिलता है।


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🛕 गंगा स्नान और मकर संक्रांति का दिव्य संबंध

पद्म पुराण में वर्णित है कि मकर संक्रांति के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। कथा के अनुसार, इस दिन गंगा मां ने भगवान विष्णु के आदेश पर भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर कपिल मुनि के आश्रम में अपने जल से पूर्वजों को तार दिया। यही कारण है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है।

माना जाता है कि इस दिन गंगा, यमुना, सरस्वती और अदृश्य पवित्र नदियों का संगम प्रयागराज (महाकुंभ क्षेत्र) में होता है। स्कंद पुराण कहता है:
"माघे मासे महादेव, मकरस्थे दिवाकरे।
स्नानं दानं तपः कार्यं, मुक्त्यर्थं विप्रसम्मतम्।।"
अर्थात, माघ मास में, जब सूर्य मकर राशि में हो, तब स्नान, दान और तप करने से व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है।


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🙏 दान और तप का महत्व: विष्णु और शंकर की कथा

मकर संक्रांति को "दान का पर्व" भी कहा गया है। पौराणिक कथा के अनुसार, एक बार भगवान विष्णु ने इस दिन असुरों का संहार करके उनके सिरों को मंदराचल पर्वत पर स्थापित किया। यह सत्य और धर्म की विजय का प्रतीक है। उसी समय से मकर संक्रांति पर अन्न, वस्त्र, और तिल दान करने की परंपरा आरंभ हुई।

महाभारत में लिखा गया है:
"तिल दानं तथा स्नानं सर्वपाप प्रणाशनम्।"
तिल से जुड़ी परंपरा के पीछे यह मान्यता है कि तिल के दान और सेवन से मनुष्य की नकारात्मक ऊर्जा समाप्त होती है और जीवन में शांति और सुख का संचार होता है।


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✨ मकर संक्रांति और महाकुंभ का दिव्य संगम

महाकुंभ और मकर संक्रांति का सीधा संबंध है। भागवत पुराण में वर्णित "समुद्र मंथन" की कथा के अनुसार, अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें पृथ्वी पर गिरीं। प्रयागराज, हरिद्वार, उज्जैन, और नासिक को वह चार स्थान कहा गया जहां ये बूंदें गिरीं। मकर संक्रांति के दिन इन स्थानों पर स्नान करने से साधक को अमृत की प्राप्ति जैसी अनुभूति होती है।

स्कंद पुराण के अनुसार, इस दिन प्रयागराज में स्नान करने से 88,000 ब्राह्मणों को भोजन कराने जितना पुण्य प्राप्त होता है। महाकुंभ स्नान आत्मा की शुद्धि का अद्भुत माध्यम है, जो मनुष्य को उसकी सांसारिक और आध्यात्मिक यात्रा में आगे बढ़ने में सहायता करता है।


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🌅 एक साधक की अद्भुत कथा

पौराणिक काल में, एक ऋषि थे, ऋचीक मुनि, जो गंगा किनारे तपस्या कर रहे थे। मकर संक्रांति के दिन, उन्होंने गंगा में स्नान किया और सूर्य देव का ध्यान करते हुए तिल और गुड़ का दान किया। उसी रात, उनके सपने में भगवान विष्णु ने दर्शन दिए और कहा, "जो व्यक्ति मकर संक्रांति के दिन स्नान, दान और पूजा करता है, वह केवल इस जीवन में ही नहीं, बल्कि अगले जन्मों में भी शुभता और मोक्ष प्राप्त करता है।"


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🕉️ आध्यात्मिक शक्तियों का अद्भुत समागम

मकर संक्रांति केवल पर्व नहीं, बल्कि एक ऐसा दिन है जब ब्रह्मांड की ऊर्जा सबसे सकारात्मक होती है। इस दिन:

1. सूर्य पूजा से मानसिक और शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है।


2. गंगा स्नान से पापों का नाश और आत्मा की शुद्धि होती है।


3. दान से धन और समृद्धि में वृद्धि होती है।


4. योग और ध्यान से आध्यात्मिक उन्नति होती है।




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🔔 निष्कर्ष: एक दिव्य संदेश

मकर संक्रांति केवल एक पर्व नहीं, बल्कि जीवन को सुधारने, आत्मा को शुद्ध करने और ब्रह्मांडीय ऊर्जा का अनुभव करने का अवसर है। इस दिन की पौराणिक महिमा और लाभ को ध्यान में रखते हुए, हर व्यक्ति को इसे श्रद्धा और समर्पण के साथ मनाना चाहिए।

"सूर्य देव की कृपा से आपका जीवन प्रकाशमय हो, और मकर संक्रांति का पर्व आपको शांति, समृद्धि और मोक्ष की ओर अग्रसर करे।"

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बात करेंगे एक ऐसे पर्वत के बारे में जो हिमालय पर्वत से भी पुराना है। एक ऐसा पर्वत जिसमें बहुत सारे रहस्य छिपे हुए हैं और उनके सा...