Thursday, 31 August 2023

रक्षाबंधन पर जानिए पौराणिक काल के 10 भाइयों की प्रसिद्ध बहनें...

रक्षाबंधन पर जानिए पौराणिक काल के 10 भाइयों की प्रसिद्ध बहनें...

भाई-बहन के पवित्र और प्यारे रिश्तों के त्योहार रक्षा बंधन पर बहनें अपने भाई को राखी बांधती है। इतिहास में भाई और बहनों के भी कई किस्से प्रचलित हैं। आओ जानते हैं इतिहास प्रसिद्ध 10 प्रसिद्ध बहनों के नाम
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1. भगवान शिव की बहन :- कहते हैं कि भगवान शिव की बहन असावरी देवी थीं। कहते हैं कि पार्वती अकेली रहती थीं तो उन्होंने एक बार शिव से कहा कि काश मेरी ननद होती तो अच्छा होता। तब शिव ने अपनी माया से अपनी एक बहन की उत्पत्ति की और पार्वती देवी से कहा ये रही आपकी ननद। इसके बाद के किस्से पुराणों में पढ़ें। उल्लेखनीय है कि पार्वती की सौतेली बहन देवी लक्ष्मी थीं जिनका विवाह श्रीहरि विष्णु से हुआ था। इसी तरह भगवान शिव की पुत्री अर्थात कार्तिकेय और गणेश की बहन ज्योति, अशोक सुंदरी और मनसा देवी की ख्‍याति है।

2. भगवान विष्णु की बहन :- शाक्त परंपरा में तीन रहस्यों का वर्णन है- प्राधानिक, वैकृतिक और मुक्ति। इस प्रश्न का, इस रहस्य का वर्णन प्राधानिक रहस्य में है। इस रहस्य के अनुसार महालक्ष्मी के द्वारा विष्णु और सरस्वती की उत्पत्ति हुई अर्थात विष्णु और सरस्वती बहन और भाई हैं। इन सरस्वती का विवाह ब्रह्माजी से और ब्रह्माजी की जो दूसरी सरस्वती है, उनका विवाह विष्णुजी से हुआ था ऐसे उल्लेख मिलता है। इसके अलावा दक्षिण भारत की प्रचलित मान्यता के अनुसार मीनाक्षी देवी नामक एक देवी भगवान शिव की पत्नी पार्वती का अवतार और भगवान विष्णु की बहन थीं। मीनाक्षी देवी का मीनाक्षी अम्मन मंदिर दक्षिण भारत में है।

3.  बाली की बहन : -जब भगवान वामन ने महाराज बली से तीन पग भूमि मांगकर उन्हें पाताललोक का राजा बना दिया तब राजा बली ने भी वर के रूप में भगवान से रात-दिन अपने सामने रहने का वचन भी ले लिया। भगवान को वामनावतार के बाद पुन: लक्ष्मी के पास जाना था लेकिन भगवान ये वचन देकर फंस गए और वे वहीं रसातल में बली की सेवा में रहने लगे। उधर, इस बात से माता लक्ष्मी चिंतित हो गई। ऐसे में नारदजी ने लक्ष्मीजी को एक उपाय बताया। तब लक्ष्मीजी ने राजा बली को राखी बांध अपना भाई बनाया और अपने पति को अपने साथ ले आईं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी। तभी से यह रक्षा बंधन का त्योहार प्रचलन में हैं।

4. यमराज की बहन :- भाई दूज को यम द्वितीया भी कहते हैं। मान्यता है कि इस दिन यमुना ने अपने भाई भगवान यमराज को अपने घर आमंत्रित करके उन्हें तिलक लगाकर अपने हाथ से स्वादिष्ट भोजन कराया था। जिससे यमराज बहुत प्रसन्न हुए थे और उन्होंने यमुना को मृ  त्यु के भय से मुक्त होकर अखंड सौभाग्यवती बने रहने का वरदान दिया था। कहते हैं कि इस दिन जो भाई-बहन इस रस्म को निभाकर यमुनाजी में स्नान करते हैं, उनको यमराजजी यमलोक की यातना नहीं देते हैं। इस दिन मृ  त्यु के देवता यमराज और उनकी बहन यमुना का पूजन किया जाता है।

5. भगवान राम की बहन :-  श्रीराम की दो बहनें भी थी एक शांता और दूसरी कुकबी। हम यहां आपको शांता के बारे में बताएंगे। दक्षिण भारत की रामायण के अनुसार राम की बहन का नाम शांता था, जो चारों भाइयों से बड़ी थीं। शांता राजा दशरथ और कौशल्या की पुत्री थीं, लेकिन पैदा होने के कुछ वर्षों बाद कुछ कारणों से राजा दशरथ ने शांता को अंगदेश के राजा रोमपद को दे दिया था। भगवान राम की बड़ी बहन का पालन-पोषण राजा रोमपद और उनकी पत्नी वर्षिणी ने किया, जो महारानी कौशल्या की बहन अर्थात राम की मौसी थीं। शांता के पति एक महान ऋषि ऋंग थे। राजा दशरथ और इनकी तीनों रानियां इस बात को लेकर चिंतित रहती थीं कि पुत्र नहीं होने पर उत्तराधिकारी कौन होगा। इनकी चिंता दूर करने के लिए ऋषि वशिष्ठ सलाह देते हैं कि आप अपने दामाद ऋंग ऋषि से पुत्रेष्ठि यज्ञ करवाएं। इससे पुत्र की प्राप्ति होगी। ऋंग ऋषि ने ही पुत्रेष्ठि यज्ञ किया था।

6.  भगवान श्रीकृष्ण की बहन :-  कहा जाता है कि नरकासुर का वध करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा से मिलने भाई दूज के दिन उनके घर पहुंचे थे। सुभद्रा ने उनका स्वागत करके अपने हाथों से उन्हें भोजन कराकर तिलक लगाया था। सुभद्रा के अलावा श्रीकृष्ण की और भी बहनें थी। पहली एकानंगा(यह यशोदा की पुत्री थीं), दूसरी योगमाया (देवकी के गर्भ से सती ने महामाया के रूप में इनके घर जन्म लिया, जो कंस के पटकने पर हाथ से छूट गई थी। कहते हैं, विन्ध्याचल में इसी देवी का निवास है। कहते हैं कि योगमाया ने श्रीकृष्ण का हर कदम पर साथ दिया था। इसके अलावा द्रौपदी को श्रीकृष्ण अपनी बहन मानते थे।

7. सूर्य देव की बहन :- भगवान सूर्य देव की बहन और ब्रह्मा की मानस पुत्री छठ मैया के नाम से प्रसिद्ध है। मां छठी को कात्यायनी नाम से भी जाना जाता है।
नवरात्रि की षष्ठी तिथि को इन्हीं की पूजा की जाती है।

8. रावण की बहन :- रावण की दो बहनें थी एक का नाम सूर्पनखा और दूसरी थी कुम्भिनी जो की मथुरा के राजा मधु राक्षस की पत्नी थी और राक्षस लवणासुर की मां थी।

9. कंस की बहन :-  सब दुर्गुणों के बावजूद कंस अपनी छोटी बहन देवकी से अपार स्नेह रखता था और वह उसे सबसे ज्यादा चाहता था। यदि देवकी के विवाह के समय आकाशवाणी ना हुई होती, तो वह कभी अपनी बहन पर मर्मांतक अत्याचार नहीं कर सकता था। देवकी राजा उग्रसेन और रानी पद्मावती की पुत्री थीं।

10. दुर्योधन की बहन :-  कौरव यानी दुर्योधन ओर उसके 100 भाई, लेकिन कौरवों की 1 बहन भी थी, नाम था दुशाला। दुशाला का विवाह सिंध देश के राजा जयद्रथ के साथ हुआ था। जयद्रथ के पिता वृध्दक्षत्र थे। जयद्रथ ने द्रौपदी का हरण करने का प्रयास किया था जिसके चलते द्रौपदी ने उसका सिर मुंडवा कर उसे अपमानित किया था। इसी जयद्रथ के कारण अभिमन्यु को पांडव चक्रव्यूह से नहीं बचा सके थे। इसी तरह महाभारत में शकुनि की बहन गांधारी और धृष्टदुम्न की बहन द्रौपदी की प्रसिद्धि भी है।

आप सभी को भाई-बहन के असीम स्नेह के प्रतीक पावन पर्व रक्षाबंधन की हार्दिक शुभकामनाएं 🙏🌿🕉️ 

#RakshaBandhan #रक्षाबंधन

Tuesday, 29 August 2023

जन्म से मृत्यु तक कुंडली के 12 भाव



जन्म से मृत्यु तक कुंडली के 12 भाव

#thread 
मनुष्य के लिए संसार में सबसे पहली घटना उसका इस पृथ्वी पर जन्म है, इसीलिए प्रथम भाव जन्म भाव कहलाता है। जन्म लेने पर जो वस्तुएं मनुष्य को प्राप्त होती हैं उन सब वस्तुओं का विचार अथवा संबंध प्रथम भाव से होता है जैसे-रंग-रूप, कद, जाति, जन्म स्थान तथा जन्म समय की बातें।

ईश्वर का विधान है कि मनुष्य जन्म पाकर मोक्ष तक पहुंचे अर्थात प्रथम भाव से द्वादश भाव तक पहुंचे। जीवन से मरण यात्रा तक जिन वस्तुओं आदि की आवश्यकता मनुष्य को पड़ती है वह द्वितीय भाव से एकादश भाव तक के स्थानों से दर्शाई गई है।

मनुष्य को शरीर तो प्राप्त हो गया, किंतु शरीर को स्वस्थ रखने के लिए, ऊर्जा के लिए दूध, रोटी आदि खाद्य पदार्थो की आवश्यकता होती है अन्यथा शरीर नहीं चलने वाला। इसीलिए खाद्य पदार्थ, धन, कुटुंब आदि का संबंध द्वितीय स्थान से है।

धन अथवा अन्य आवश्यकता की वस्तुएं बिना श्रम के प्राप्त नहीं हो सकतीं और बिना परिश्रम के धन टिक नहीं सकता। धन, वस्तुएं आदि रखने के लिए बल आदि की आवश्यकता होती है इसीलिए तृतीय स्थान का संबंध, बल, परिश्रम व बाहु से होता है। शरीर, परिश्रम, धन आदि तभी सार्थक होंगे जब काम करने की भावना होगी, रूचि होगी अन्यथा सब व्यर्थ है।

अत: कामनाओं, भावनाओं का स्थान चतुर्थ रखा गया है। चतुर्थ स्थान मन का विकास स्थान है। 

मनुष्य के पास शरीर, धन, परिश्रम, शक्ति, इच्छा सभी हों, किंतु कार्य करने की तकनीकी जानकारी का अभाव हो अर्थात् विचार शक्ति का अभाव हो अथवा कर्म विधि का ज्ञान न हो तो जीवनचर्या आगे चलना मुश्किल है। पंचम भाव को विचार शक्ति के मन के अन्ततर जगह दिया जाना विकास क्रम के अनुसार ही है।

यदि मनुष्य अड़चनों, विरोधी शक्तियों, मुश्किलों आदि से लड़ न पाए तो जीवन निखरता नहीं है। अत: षष्ठ भाव शत्रु, विरोध, कठिनाइयों आदि के लिए मान्य है।

मनुष्य में यदि दूसरों से मिलकर चलने की शक्ति न हो और वीर्य शक्ति न हो तो वह जीवन में असफल समझा जाएगा। अत: मिलकर चलने की आदत आवश्यक है और उसके लिए भागीदार, जीवनसाथी की आवश्यकता होती ही है। अत:  जीवनसाथी, भागीदार आदि का विचार सप्तम भाव से किया जाता है।

यदि मनुष्य अपने साथ आयु लेकर न आए तो उसका रंग, रूप, स्वास्थ्य, गुण, व्यापार आदि कोशिशें सब बेकार अर्थात् व्यर्थ हो जाएंगी। अत: अष्टम भाव को आयु भाव माना गया है। आयु का विचार अष्टम से करना चाहिए।

नवम स्थान को धर्म व भाग्य स्थान माना है। धर्म-कर्म अच्छे होने पर मनुष्य के भाग्य में उन्नति होती है और इसीलिए धर्म और भाग्य का स्थान नवम माना गया है।

दसवें स्थान अथवा भाव को कर्म का स्थान दिया गया है। अत: जैसा कर्म हमने अपने पूर्व में किया होगा उसी के अनुसार हमें फल मिलेगा।

एकादश स्थान प्राप्ति स्थान है। हमने जैसे धर्म-कर्म किए होंगे उसी के अनुसार हमें प्राप्ति होगी अर्थात् अर्थ लाभ होगा, क्योंकि बिना अर्थ सब व्यर्थ है आज इस अर्थ प्रधान युग में।

द्वादश भाव को मोक्ष स्थान माना गया है। अत: संसार में आने और जन्म लेने के उद्देश्य को हमारी जन्मकुण्डली क्रम से इसी तथ्य को व्यक्त करती है।



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Friday, 25 August 2023

अमोघ हनुमंत कवचम् क्या है? आइये जाने


🔸🔸अमोघ हनुमंत कवचम्  क्या है?🔸🔸

Thread 
         भगवान विष्णु और माता महालक्ष्मी इस अखिल ब्रह्माण्ड के पालनकर्ता हैं। जो पालनकर्ता होता है उसे तो बालक की व्यथा सुनकर अवश्य ही आना पड़ता है। चाहे जैसा भी काल हो, जैसी भी स्थितियां हो पालनकर्ता को तो बालक की पुकार सुननी ही पड़ती है । यही कारण है कि भगवान विष्णु बारम्बार इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। विष्णु और माता महालक्ष्मी केवल मनुष्य रूप में ही अवतरित नहीं होते हैं। कभी वे नरसिंह अवतार के रूप में इस धरा पर आते हैं कभी मकर रूप में अवतरित होते हैं तो कभी किसी अन्य स्वरूप में विष्णु केवल मनुष्यों के देव नहीं है समस्त योनियां, जीव-जंतु, पादप सभी के पालक विष्णु ही हैं। अतः जब यह धरा मनुष्यों की बहुलता में क्रीड़ा स्थली बन जाती है तब भगवान विष्णु मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं। 
              इस धरा की सम्पूर्ण व्यवस्था में रुद्र और ब्रह्मा के साथ-साथ महादेवियों का अंश भी समान रूप से आवश्यक होता है। विष्णु के अवतरित होने की स्थिति में उनके साथ रुद्रांश भी अवतरित होते हैं साथ ही महादेवी भी स्त्री रूप में इस धरा पर दिव्य छटा बिखेरती हैं। त्रेता युग में जग को मर्यादित करने के लिये विष्णु जब राम के रूप में अवतरित हुये तभी रुद्रांश हनुमंत का भी प्राकट्य हुआ। हनुमंत अपने अंदर शिव के प्रमुख अंश वरुण और सूर्य की शक्ति समेटे हुये हैं। जिन दिव्य महापुरुषों में रुद्रांश या शिवांश होता है उन्हीं के शरीर और मस्तिष्क पर भवानी आरूढ़ होती हैं। निम्न स्तरीय जीव और मनुष्य क्रोध की आवृत्ति धारण करते हैं। क्रोध और भवानी दो अलग धारायें हैं। 
          क्रोध आसुरी प्रवृत्ति का द्योतक है, क्रोध के साथ दम्भ भी मिश्रित हता है। क्रोध मस्तिष्क का सबसे ज्यादा क्षय करता है। धीर गम्भीर और मर्यादित व्यक्तित्व क्रोध की आवृत्ति मे दूर रहते हैं परन्तु भवानी की तीव्रता वीरता का प्रतीक है । साहसी और मृत्युभय से विरक्त मस्तिष्क ही भवानी की गरिमा को धारण कर सकता है। हनुमंत को भवानी सिद्ध हैं। समस्त स्त्रियां एवं स्वयं माता सीता उन्हें आदर, श्रद्धा और वात्सल्य के भाव से देखती हैं। आखिरकार वे माता सीता और राम के पुनर्मिलन में सेतु ही तो बने हैं। जिस समय सीता जी लंका की अशोक वाटिका में राम वियोग में प्रतिक्षण व्यथित हो रही थीं उस समय हनुमान ने ही उन तक राम मुद्रिका पहुँचाकर उन्हें आनंदित किया था एवं सीताजी की निशानी पुनः राम तक पहुँचाकर उनके व्यथित हृदय को भी परम सुख प्रदान किया था। राम और सीता के बीच वास्तव में हनुमंत ही सेतुबंध हैं। यही सेतुबंध उन्हें राम के साथ अटूट प्रेम बंधन में बांधता है। जिसके मस्तक पर मां भवानी आरूढ़ होती है वही हर हर महादेव का जयघोष कर सकता है। मां भवानी की शक्ति ही महादेव को रौद्र रूप धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
        हनुमंत कवच की विशेषता यह है कि इसमें भगवान शिव का महामृत्युंजय कवच और मां भगवती का महाकाली कवच एक साथ मिश्रित होकर हनुमंत की पवित्रता, भक्ति और श्रद्धा से समायोजित हो चमत्कारिक रूप से साधकों को फल प्रदान करता है एवं उन्हें सर्व बाधाओं, आसुरी शक्तियों, रोग, शोक और वियोग से संरक्षित करता है। पवित्रता ही परम रोग नाशक औषधि है। आसुरी प्रवृत्ति वाले मनुष्य के मस्तक पर मां भवानी कदापि आरूढ़ नहीं होती । आसुरी शक्तियां तो सदैव मातृ शक्ति का अनादर ही करती हैं। रावण ने तो इसकी पराकाष्ठा सीता हरण करके दिखा दी थी। ठीक इसी प्रकार दुर्योधन ने द्रोपदी का चीर हरण करके अपनी मृत्यु सुनिश्चत कर ली थी। हनुमंत कवच आसुरी प्रवृत्ति वालों के लिए नहीं है। न ही इसका उपयोग कायर, कामी और विलासी व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये कर सकते हैं। यह कवच तो वीरों के लिये बना है, धर्म की रक्षा और मर्यादा का पालन करने वाले ही इसे धारण कर सकते हैं।. 
           यह रक्षा करता है अवरोधों की, स्त्रियों की एवं प्रेममयी व्यक्तित्वों की । प्रत्येक व्यक्ति इस कवच को धारण तभी कर सकता है जब उसके मन में साधु संतो के प्रति आदर भाव हो, वेदान्त संस्कृति में पूर्ण विश्वास हो एवं हृदय - कमल पर विष्णु रूपी राम और लक्ष्मी रूपी सीता पूर्ण श्रद्धा के साथ विराजमान हों। हनुमंत कवच को धारण करने का अभिप्राय ही दुष्टों का दमन करना है। पूर्ण वीरता के साथ । न कि कायरों के समान दुष्टों के सामने समर्पण कर हनुमंत शक्ति की अवहेलना करना है। हनुमंत विजय का प्रतीक हैं। वे अजेय हैं। विषम से विषम परिस्थितियों को भी वे अनुकूल बना देते हैं जैसा कि उन्होंने भगवान श्रीराम के साथ किया था। हनुमंत कवच धारण करने वाले व्यक्ति के हृदय में असम्भव जैसे शब्दों का उत्पादन नहीं होना चाहिए।
हनुमंत कवच पराआध्यात्मिक कवच है एवं इसमें समस्त आर्यावर्त के ऋषि-मुनियों और साधु-संतों के आशीर्वाद निहित हैं। 
            कवच का तात्पर्य लोहे के वस्त्रों से नहीं है। वे तो एक बार भेदे जा सकते हैं, आप उनके वजन तले बोझिलता महसूस कर सकते हैं, उनमें स्वरूप परिवर्तन होता ही नहीं है। परन्तु हनुमंत कवच तो हर परिस्थिति में परिवर्तनीय हो आपको बिना बताये अदृश्य रूप में प्रतिक्षण आपकी रक्षा करता रहेगा। हनुमंत बुद्धि के देवता हैं। उनकी बुद्धि शीशे के समान पवित्र है।रामायण जैसा महाग्रंथ इस आर्यावर्त के सभी ऋषि मुनियों एवं मंत्र दृष्टा, तंत्र दृष्टा और तत्व दृष्टा महापुरुषों ने अपने-अपने तरीके से वर्णित किया है। एक समय पार्वती जी ने भगवान शंकर से समस्त लोकों के कल्याण के लिये इस कवच के बारे में बताने को कहा जिससे कि सभी देव और मनुष्य परम सुरक्षा प्राप्त कर सकें तब भगवान शंकर बोले- हे देवि भगवान श्रीराम ने ही हनुमंत कवच का निर्माण किया है और वह भी सर्वप्रथम अपने परम भक्त विभीषण के लिये जो कि असुर नगरी में निवास करता हुआ भी राम का अनन्य उपासक था। यह कवच परम गोपनीय है अतः इसे आप विशेष रूप से श्रवण कीजीये 

विनियोग

       दाहिने हाथ में जल लेकर उसमें अक्षत, पुष्प मिला लें तथा निम्न मंत्र पढ़ें -

ॐ अस्य श्री हनुमत्कवचस्तोत्रमन्त्रस्य श्रीरामचन्द्र ऋषि: अनुष्टुप्छन्दः । श्री महावीरो हनुमान् देवता / मारुतात्मज इति बीजम् । अञ्जिनीसूनुरिति शक्तिः । ॐ ह्रीं ह्रां ह्रौं इति कवचम् । ॐ स्वाहा इति कीलकम् । ॐ लक्ष्मणप्राणदाता इति बीजम् । मम सकलकार्यसिद्धयर्थे जपे विनियोगः ।

अथ न्यास

ॐ ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः । 
ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । 
ॐ हूं मध्यमाभ्यां नमः । 
ॐ हैं अनामिकाभ्या नमः । 
ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । 
ॐ हः करतल करपृष्टाभ्यां नमः । 
ॐ अंजनीसूनवे हृदयाय नमः । 
ॐ रुद्रमूर्तये शिरसि स्वाहा । 
ॐ वायुसुतात्मने शिखायै वषट् । 
ॐ वज्रदेहाय कवचाय हुम् । 
ॐ रामदूताय नेत्रत्रयाय वौषट् । 
ॐ ह्रीं ब्रह्मास्त्र निवारणाय अस्त्राय फट्

दिग्बन्ध

राम दूताय विद्महे, कपिराजाय धीमहि,तन्नो हनुमन्त प्रचोदयात् ।
 ॐ हुँ फट् इति दिग्बन्धन ।

अथ ध्यानम्

घ्यायेद्वालदिवाक रघुतिनिभं देवारिदर्पापाहं,
देवेन्द्रप्र वरप्र शस्तयशसं दैदीप्यमानं रुचा ।
सुग्रीवादिसमस्तवानरयुतं सुव्यक्ततत्त्वप्रियं 
संरक्तारुणलोचनं पवनजं पीताम्बरालंकृतम् ॥

उद्यन्मार्तण्ड कोटि प्रकट रुचियुतं चारु वीरासनस्थं,
मौंजीयज्ञोपवीता भरणरुचिशिरवा शोभितंकुंडलांगम्।
भक्तानामिष्टदंतं प्रणत मुनिजनं वेदाना प्रमोदं,
ध्यायेदेवं विधेयंप्लवंगकुलपतिं गोष्पदी भूतवाधिम् ॥

वज्रांगं पिंग केशादयं स्वर्ण कुण्डल मण्डितम् ।
नियुद्धं कर्म कुशलं पारावार पराक्रमम् ॥ 

वाम हस्ते महावृक्षं दशास्थकर खण्डनम् ।
उद्यदक्षिण कोदण्ड हनुमन्तं विचिन्तयेत् ॥

स्फटिकाभं स्वर्ण कान्तिं द्विभुजं च कृताञ्जलिं।
कुण्डलद्वय संशोभि मुखाम्भोजं हरिं भजेत् ॥

उद्यदादित्य संकाश मुदारभुज विक्रमम् । 
कन्दर्प कोटि लावण्यं सर्व विद्या विशारदम् ॥

श्री राम हृदयानन्दं भक्त कल्प महीरुहम् । 
अभयं वरदं दोभ्यि कलये मारुतात्मजम् ॥

अपराजित नमस्तेऽस्तु नमस्ते राम पूजित ।
 प्रस्थानंच करिष्यामि, सिद्धिर्भवतु मे सदा ॥

यो वारां निधिमल्प पल्वल मिवोल्लंघ्य प्रतापान्वितो, 
वैदेही घन शोक ताप हरणो वैकुण्ठ तत्त्व प्रियः ।

अक्षार्जित राक्षसेश्वर महा दर्पापहारी रणे 
सोऽयं वानर पुंगवोऽस्तु सदा युष्मान् समीरात्मजः ॥

वजांगं पिंग केशं कनकमयलसत्कुण्डला क्रान्त गंड,
नाना विद्याधिनाथं करतल विधूतं पूर्ण कुम्भं दृढं च ।
भक्ताभीष्टाधिकारं विदधति च सदा सर्वदा सुप्रसन्नं 
त्रैलोक्य त्राणकारं सकल भुवनगं रामदूतं नमामि ॥

उपल्लांगूल केशं, प्रचय जलधरं भीम मूर्ति कपीन्द्र,
वन्दे रामांघ्रि पदम भ्रमर परिवृतं तत्त्व सारं प्रसन्नम् ।
वज्रांगं वज्ररूपं कनकमयलसत्कुण्डला क्रांत गण्डम्  भोहिणविकटं भूतरक्षोऽधिनाथम् ॥ 

वामे करे वैरिभयं वहन्तं शैलं च दक्षे निजकंठलग्नं । दधानमासाद्यसुवर्ण वर्णं भजेज्ज्वलत्कुण्डल रामदूतम् ॥

पदम राग मणि कुण्डलत्विषपाटली कृत कपोल मण्डलम्।
दिव्यदेवकदलीवनान्तरे भावयामि पवमाननन्दनम् ॥

#जय_श्री_राम 🙏

सनातन धर्म की 16 सिद्धियाँ एवम रहस्य क्या है ! आइये जाने


16 सिद्धियाँ एवम  रहस्य...

1. वाक् सिद्धि 

जो भी वचन बोले जाए वे व्यवहार में पूर्ण हो, वह वचन कभी व्यर्थ न जाये, प्रत्येक शब्द का महत्वपूर्ण अर्थ हो, वाक् सिद्धि युक्त व्यक्ति में श्राप अरु वरदान देने की क्षमता होती हैं.

 2. दिव्य दृष्टि सिद्धि 

 दिव्यदृष्टि का तात्पर्य हैं कि जिस व्यक्ति के सम्बन्ध में भी चिन्तन किया जाये, उसका भूत, भविष्य और वर्तमान एकदम सामने आ जाये, आगे क्या कार्य करना हैं, कौन सी घटनाएं घटित होने वाली हैं, इसका ज्ञान होने पर व्यक्ति दिव्यदृष्टियुक्त महापुरुष बन जाता हैं.

3. प्रज्ञा सिद्धि 

प्रज्ञा का तात्पर्य यह हें की मेधा अर्थात स्मरणशक्ति, बुद्धि, ज्ञान इत्यादि! ज्ञान के सम्बंधित सारे विषयों को जो अपनी बुद्धि में समेट लेता है वह प्रज्ञावान कहलाता हें! जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से सम्बंधित ज्ञान के साथ-साथ भीतर एक चेतनापुंज जाग्रत रहता है।

4. दूरश्रवण सिद्धि 

 इसका तात्पर्य यह है की भूतकाल में घटित कोई भी घटना, वार्तालाप को पुनः सुनने की क्षमता। 

 5. जलगमन सिद्धि :-

 यह सिद्धि निश्चय ही महत्वपूर्ण हैं, इस सिद्धि को प्राप्त योगी जल, नदी, समुद्र पर इस तरह विचरण करता हैं मानों धरती पर गमन कर रहा हो।

 6. वायुगमन  सिद्धि :-

इसका तात्पर्य हैं अपने शरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर एक लोक से दूसरे लोक में गमन कर सकता हैं, एक स्थान से दूसरे स्थान पर सहज तत्काल जा सकता हैं।

 7. अदृश्यकरण सिद्धि:-

 अपने स्थूलशरीर को सूक्ष्मरूप में परिवर्तित कर अपने आप को अदृश्य कर देना! जिससे स्वयं की इच्छा बिना दूसरा उसे देख ही नहीं पाता है। 

 8. विषोका सिद्धि :-

 इसका तात्पर्य हैं कि अनेक रूपों में अपने आपको परिवर्तित कर लेना! एक स्थान पर अलग रूप हैं, दूसरे स्थान पर अलग रूप हैं।

 9. देवक्रियानुदर्शन सिद्धि :-

 इस क्रिया का पूर्ण ज्ञान होने पर विभिन्न देवताओं का साहचर्य प्राप्त कर सकता हैं! उन्हें पूर्ण रूप से अनुकूल बनाकर उचित सहयोग लिया जा सकता हैं।

10. कायाकल्प सिद्धि:-

 कायाकल्प का तात्पर्य हैं शरीर परिवर्तन! समय के प्रभाव से देह जर्जर हो जाती हैं, लेकिन कायाकल्प कला से युक्त व्यक्ति सदैव रोगमुक्त और यौवनवान ही बना रहता है। 

11. सम्मोहन सिद्धि :-

 सम्मोहन का तात्पर्य है कि सभी को अपने अनुकूल बनाने की क्रिया! इस कला के पूर्ण व्यक्ति मनुष्य तो क्या, पशु-पक्षी, प्रकृति को भी अपने अनुकूल बना लेता है।

 12. गुरुत्व सिद्धि:-

 गुरुत्व का तात्पर्य है गरिमावान! जिस व्यक्ति में गरिमा होती है, ज्ञान का भंडार होता है, और देने की क्षमता होती है, उसे गुरु कहा जाता है! और भगवन कृष्ण को तो जगद्गुरु कहा गया है।

 13. पूर्ण पुरुषत्व सिद्धि:-

 इसका तात्पर्य हैं अद्वितीय पराक्रम और निडर, एवं बलवान होना! श्रीकृष्ण में यह गुण बाल्यकाल से ही विद्यमान था! जिस के कारण से उन्होंने ब्रजभूमि में राक्षसों का संहार किया! तदंतर कंस का संहार करते हुए पूरे जीवन शत्रुओं का संहार कर आर्यभूमि में पुनः धर्म की स्थापना की

 14. सर्वगुण संपन्न सिद्धि:-

जितने भी संसार में उदात्त गुण होते हैं, सभी कुछ उस व्यक्ति में समाहित होते हैं, जैसे – दया, दृढ़ता, प्रखरता, ओज, बल, तेजस्विता, इत्यादि! इन्हीं गुणों के कारण वह सारे विश्व में श्रेष्ठतम व अद्वितीय मन जाता हैं, और इसी प्रकार यह विशिष्ट कार्य करके संसार में लोकहित एवं जनकल्याण करता है।

 15. इच्छा मृत्यु सिद्धि :-

 इन कलाओं से पूर्ण व्यक्ति कालजयी होता हैं, काल का उस पर किसी प्रकार का कोई बंधन नहीं रहता, वह जब चाहे अपने शरीर का त्याग कर नया शरीर धारण कर सकता है।

16. अनुर्मि सिद्धि :- 

 अनुर्मि का अर्थ हैं. जिस पर भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी और भावना-दुर्भावना का कोई प्रभाव न हो।

Thursday, 3 August 2023

मनुष्य जीवन मे नाड़ी का क्या महत्व है आइये जाने ?



𝗶𝗱𝗮    𝗽𝗶𝗻𝗴𝗮𝗹𝗮.   𝘀𝘂𝘀𝗵𝘂𝗺𝗻𝗮   𝗻𝗮𝗱𝗶𝘀

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नाड़ियों पर आधारित सब कुछ शास्त्रों के अनुसार हमारे शरीर में 72 हजार 864 नाड़ियाँ हैं, जिनमें 24 नाड़ी प्रमुख होती हैं। उनमें 10 कुछ ज्यादा प्रमुख नाड़ियाँ होती हैं और इन 10 नाड़ियों में 03 अति महत्वपूर्ण नाड़ियां हैं जो कि हमारे जीवन में प्राण संचारित करती हैं, वे हैं इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना।
यहां पर नाड़ी से तात्पर्य धमनियाँ या वे नसें नहीं हैं जिनमें रक्त का प्रवाह होता है बल्कि इनसे तात्पर्य यह है कि वह मार्ग है जिनमें प्राण संचारित होते हैं। जो एक्टिवली हमारे जीवन में कई कार्यों के लिए जिम्मेदार होती है। जो बदलती भी है और इन्हें बदला भी जा सकता है। सामान्यत: दोनों स्वर 60 से 80 मिनिट में बदलते रहते हैं।
आयुर्वेद में यह कहा जाता है कि यदि आप शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रहना चाहते हैं तो तीन नाड़ियों में जो रूकावटें हैं उनको दूर कर लें तो आप जीवन पर्यन्त स्वस्थ रहेंगे मतलब कि नाड़ियों में संतुलन बना लें। हमारी दिन में कई बार ये नाड़ियाँ बदलती रहती हैं। इड़ा मन से संबंधित कार्य के लिए है और पिंगला शरीर से संबधित कार्य के लिए। एक पुरूष है तो एक स्त्रीतत्व नाड़ी। एक नैगेटिव है, तो एक पॉजिटिव। अत: दोनों का संतुलन आवश्यक है। जैसे-जैसे हमारी नाड़ियाँ संतुलित होती जाएंगी हमारा जीवन भी संतुलित होता जाएगा।
बायीं नासिका से जब श्वांस चलती है तो ‘हं’ कहते हैं और दायीं नासिका से श्वांस चलती है तो ‘ठं’ कहते हैं। इस प्रकार ‘हं’ ‘ठं’ से मिलकर हठयोग बना, जिसका सांसों से संंबंध है। इस ज्ञान की विशेषता ये है कि मनुष्य जो भी अपने जीवन में बनना चाहता है, वह सफल होगा कि नहीं इस विद्या से जान सकता है

1. इड़ा नाड़ी

इसे चंद्र स्वर व चंद्र नाड़ी तथा स्त्री नाड़ी भी कहते हैं। यह नाड़ी बायीं नासिका से संचारित होती है। इसका रंग सफेद एवं पीला है। इसका स्वभाव ठंडा, शीतल और पॉजिटिव होता है। यह नाड़ी हमारी मानसिक ऊर्जा से संबंधित है।
यह नारीत्व का भी प्रतिनिधित्व करती है। इसका उद्गम स्थल मूलाधारचक्र है। यह नाड़ी अंतर्मुखी करने वाली है। इसका संबंध हमारे दिमाग के दाहिने (राईट हेमेस्फीयर) से है। इड़ा नाड़ी को अमृत रूप भी माना गया है जो कि जगत का पालन करती है और यह सभी शुभ कार्यों को पूर्ण करती है। जिस व्यक्ति की इड़ा नाड़ी ज्यादा एक्टिव होती है वह व्यक्ति मानसिक रूप से ज्यादा सक्षम होता है।
इस नाड़ी का जैसे जैसे प्रयोग बढ़ता है उसकी बुद्धि का विकास होने लगता है। जब इड़ा स्वर चल रहा हो व यदि पृथ्वी व जल तत्व साथ में हो वह व्यक्ति अपना कोई कार्य किसी वरिष्ठ या ऊंचे ओहदे के व्यक्ति से करवाना चाहता है तो वह उस कार्य में सफल होगा। छोटी यात्राओं के लिए इड़ा स्वर सदैव शुभ रहता है। चंद्र नाड़ी को सम समझा जाता है।
इड़ा नाड़ी में करें ये कार्य:
पूजा करें, आभूषण धारण करें, संग्रह करें, कुआँ बनवाएँ, खम्बे गाढ़ें/पताका लगायें, यात्रा करें, विवाह करें। अलंकार धारण करें, पौष्टिक कार्य करें, मालिक से मिलें/राजकार्य को जायें, रसायन बनाएँ/खाएँ, गृह प्रवेश करें/जमीन खरीदें, खेती करें/उद्यम करें, सन्धि करें/करवाएँ, शिक्षा का शुभारम्भ करें, धार्मिक अनुष्ठान करें, सिद्धि प्राप्त करें। काल का ज्ञान प्राप्त करें, पशु खरीदें तथा घर लाएँ, हाथी घोड़े की सवारी करें, परोपकार करें, नाट्य करें/करवायें, यात्रा के समय गाँव या शहर में प्रवेश करें, स्त्रियाँ अपना बनाव श्रृंगार करें, तपस्या करें/कुण्डलिनी जाग्रत करें, दूर देश की यात्रा करें, गृहस्थ धर्म का पालन करें, धरोहर रखवा लें, तालाब बनवाएँ/पशुशाला बनायें, प्रतिष्ठा करें।
दान करें/मंदिर बनवायें, वस्त्र धारण करें, शान्ति हेतु कार्य करें, दिव्य औषधि बनाएँ/खाएँ, मित्रता स्थापित करें, व्यापार करें/नौकरी करें, यात्रा करें/वाहन खरीदें, भाइयों से मिलें, दीक्षा लें/यज्ञोपवीत पहनें, वेदाध्ययन करें/डिग्री लेने जायें, असम्भव रोगों की चिकित्सा करें/करवाएँ, गाना बजाना करें/ मनोरंजक कार्य करें, तिलक लगाएँ/लगवाएँ, जमीन जायदाद खरीदें, गुरु का स्वागत पूजन करें, विष स्तम्भन या नाश का उपाय करें, योगाभ्यास करें, योगासन करें। ये सभी कार्य जलतत्व में ही करें।
सुषुम्ना नाड़ी
जब प्राण का प्रवाह दोनों नासिका से चल रहा हो उसे सुषम्ना नाड़ी व सुषुम्ना स्वर एवं मध्य नाड़ी भी कहते हैं। इसको संतुलन की नाड़ी भी कहते हैं। इसका प्रयोग ध्यान, योगाभ्यास, प्राणायाम, भक्ति आदि कार्यों में होता है।
चूंकि सुषुम्ना स्वर में अग्नि का वास होता है इसलिये सांसारिक कार्य निषेध माना गया। जब यह स्वर चलता है उस समय कोई भी सांसारिक कार्य सफल नहीं होता। इसलिए सुषुम्ना स्वर में सांसारिक कार्य नहीं करना चाहिये। इस स्वर का समय सामान्यत: चार मिनिट माना जाता है।
वैसे यह हर व्यक्ति की प्रकृति पर भी निर्भर करता है। ऐसा देखा गया है कि जब संध्या का समय होता है तब सुषुम्ना नाड़ी के चलने की संभावना सबसे अधिक होती है। यह नाड़ी न तो नैगेटिव और न पॉजिटिव होती है। न स्त्रीप्रधान होती है न पुरूष प्रधान। सुषुम्ना में स्वर संचालित होता है तो हमारे चक्रों का जागरण होता है और वह कुंडली जागरण का कार्य करती है।
सुषुम्ना नाड़ी में करें ये कार्य:
जब सुषुम्ना स्वर चल रहा हो तब चर व स्थिर कार्य न करें। मकान, मंदिर आदि की प्रतिष्ठा कार्य सुषुम्ना स्वर में नहीं करना चाहिये और न ही परदेश जाना चाहिए। सुषुम्ना स्वर में जो कोई विदेश जायेगा तो दुर्भाग्य, कष्ट और पीढ़ा और उसके चित्त में क्लेश बना रहेगा।
स्वर-परिवर्तन की विधियाँ
जो स्वर चलाना चाहो, उसके विपरीत करवट बदलकर उसी हाथ का तकिया बनाकर लेट जाओ। थोड़ी देर में स्वर बदल जायेगा। जैसे यदि सूर्यस्वर चल रहा है और चंद्र स्वर चलाना है तो दाहिनी करवट लेट जाओ।
कपड़े की गोटी बनाकर या हाथ के अंगूठे से नासिका का एक छिद्र बंद कर दो। जो स्वर चलाना हो, उसे खुला रखो, स्वर बदल जायेगा।
बगल में तकिया दबाकर रखने से भी स्वर बदल जाते हैं।
अनुलोम-विलोम, नाड़ी शोधन, प्राणायाम, पूरक, रेचक, कुम्भक, आसान तथा वज्रासन से भी स्वर-परिवर्तन हो जाता है। स्वर-परिवर्तन में मुँह बन्द रखना चाहिये। नासिका से स्वर-साधन करें। चलित स्वर की प्रधानता में कार्य
प्रातःकाल सूर्योदय काल के बाद भी चलित स्वर वाली करवट से उठे 🙏🇮🇳🚩

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