Friday, 30 June 2023

भगवान विष्णु चार माह के लिए क्यो जाते हैं पाताल लोक?

आखिर क्यों भगवान विष्णु चार माह के लिए जाते हैं पाताल लोक?

देवशयनी एकादशी के साथ भगवान विष्णु चार महीने के लिए पाताल लोक चले जाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि इन चार महीनों में भगवान विष्णु निद्रा में होते हैं। जिसके कारण कोई भी शुभ कार्य नहीं होता है। भगवान विष्णु कार्तिक मास में पड़ने वाली देवउठनी एकादशी के बाद नींद से जागते हैं। जिसके बाद से शुभ कार्यों का आरंभ होता है। लेकिन भगवान विष्णु चार माह के लिए पाताल लोक क्यों जाते हैं ? जानते है इस कथा के जरिए....

वामन पुराण में बताया गया है कि असुरों के राजा बलि ने अपने बल और पराक्रम से तीनों लोकों पर अधिकार जमा लिया था। राजा बलि के आधिपत्य को देखकर इंद्र देवता घबराकर भगवान विष्णु के पास मदद मांगने पहुंचे। इंद्र के मदद मांगने के बाद भगवान विष्णु वामन अवतार धारण कर राजा बलि से भिक्षा मांगने पहुंचे। वामन भगवान ने बलि से तीन पग भूमि मांगी। पहले और दूसरे पग में भगवान ने धरती और आकाश को नाप लिया। 

अब तीसरा पग रखने के लिए कुछ बचा नहीं था, तो राजा बलि ने कहा कि तीसरा पग उनके सिर पर रख दें। भगवान विष्णु ने वामन अवतार में अपने तीन पग रखकर इंद्र देवता की चिंता तो दूर कर दी लेकिन साथ ही वह राजा बलि के दान धर्म से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा बलि से वरदान मांगने को कहा तो बलि ने उनसे पाताल में उनके साथ बसने का वर मांग लिया। बलि की इच्छापूर्ति के लिए भगवान को उनके साथ पाताल जाना पड़ा। 

}; document.write(''); भगवान विष्णु के पाताल जाने के बाद सभी देवतागण और माता लक्ष्मी चिंता में पड़ गए। अपने पति को वापस लाने के लिए माता लक्ष्मी ने सूझबूझ के साथ पति धर्म निभाया। व‍ह गरीब स्त्री बनकर राजा बलि के पास पहुंची और उन्हें अपना भाई बनाकर राखी बांध दी और बदले में भगवान विष्णु को पाताल लोक से वापस ले जाने का वचन ले लिया। एक तरफ भगवान विष्णु के सामने उनकी पत्नी लक्ष्मी और समस्त देवतागण थे तो दूसरी ओर वह बलि को भी निराश नहीं करना चाहते थे। 

उन्होंने राजा बलि को वरदान दिया कि वह आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी से कार्तिक शुक्‍ल पक्ष की एकादशी तक पाताल लोक में वास करेंगे। पाताल लोक में उनके रहने की इस अवधि को योगनिद्रा माना जाता है। उसके बाद कार्तिक मास में देवउठनी एकादशी के बाद भगवान नींद से जागते हैं और फिर सभी शुभ कार्यों का आरंभ होता है।

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय नमः 🙏 जय श्री हरि विष्णु भगवान।
ॐ हरि नमो नारायण, जय श्री लक्ष्मी नारायण 🙏❣️

आइए जानते हैं 51 शक्तिपीठ कौन से हैं ?

आइए जानते हैं 51 शक्तिपीठ कौन से हैं ❣️

ये देश भर में स्थित देवी के वो मंदिर है जहाँ देवी के शरीर के अंग या आभूषण गीरे थे। सबसे ज्यादा शक्ति पीठ बंगाल में है ।

बंगाल के शक्तिपीठ

1. काली मंदिर - कोलकाता

2. युगाद्या- वर्धमान (बर्दमान)

3. त्रिस्त्रोता - जलपाइगुड़ी

4. बहुला - केतुग्राम

5. वक्त्रेश्वर- दुब्राजपुर

6. नलहटी - नलहटी

7. नन्दीपुर- नन्दीपुर

8. अट्टहास- लाबपुर

9. किरीट - बड़नगर

10. विभाष- मिदनापुर

मध्यप्रदेश के शक्तिपीठ

12. हरसिद्धि- उज्जैन

13. शारदा मंदिर- मेहर

14. ताराचंडी मंदिर- अमरकंटक

तमिलनाडु के शक्तिपीठ

15. शुचि - कन्याकुमारी

16. रत्नावली- अज्ञात

17. भद्रकाली मंदिर- संगमस्थल

18. कामाक्षीदेवी - शिवकांची

बिहार के शक्तिपीठ

19. मिथिला- अज्ञात

20. वैद्यनाथ- बी. देवघर

21. पटनेश्वरी देवी- पटना

उत्तरप्रदेश के शक्तिपीठ

22. चामुण्डा माता मथुरा

23. विशालाक्षी - मीरघाट

24. ललितादेवी मंदिर- प्रयाग

राजस्थान के शक्तिपीठ

25. सावित्रीदेवी - पुष्कर

26. वैराट - जयपुर

गुजरात के शक्तिपीठ

27. अम्बिक देवी मंदिर- गिरनार

11. भैरव पर्वत- गिरनार

आंध्रप्रदेश के शक्तिपीठ

28. गोदावरीतट- गोदावरी स्टेशन

29. भ्रमराम्बादेवी- श्रीशैल

महाराष्ट्र के शक्तिपीठ

30. करवीर - कोल्हापुर

31. भद्रकाली- नासिक

कश्मीर के शक्तिपीठ

32. श्रीपर्वत- लद्दाख

33. पार्वतीपीठ - अमरनाथ गुफा

पंजाब के शक्तिपीठ

34. विश्वमुखी मंदिर- जालंधर

उड़ीसा के शक्तिपीठ

35. विरजादेवी - जाजपुर

हिमाचल प्रदेश के शक्तिपीठ

36. ज्वालामुखी शक्तिपीठ- कांगड़ा

असम के शक्तिपीठ

37. कामाख्या देवी - गुवाहाटी

मेघालय के शक्तिपीठ

38. जयंती- शिलांग

त्रिपुरा के शक्तिपीठ

39. राजराजेश्वरी त्रिपुरासुंदरी- राधाकिशोरपुर

हरियाणा के शक्तिपीठ

40. कुरुक्षेत्र शक्तिपीठ- कुरुक्षेत्र

41. कालमाधव शक्तिपीठ- अज्ञात

नेपाल के शक्तिपीठ

42. गण्डकी- गण्डकी

43. भगवती गुहेश्वरी- पशुपतिनाथ

पाकिस्तान के शक्तिपीठ

44. हिंगलाजदेवी - हिंगलाज

श्रीलंका के शक्तिपीठ

45. लंका शक्तिपीठ- अज्ञात

तिब्बत के शक्तिपीठ

46. मानस शक्तिपीठ- मानसरोवर

बांगलादेश के शक्तिपीठ

47. यशोर- जैशौर

48. भवानी मंदिर- चटगांव

49. करतोयातट- भवानीपुर

50. उग्रतारा देवी- बारीसाल

51 वीं पंचसागर शक्तिपीठ है।

जय माता दी 🔱

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र क्या और कैसे है ? (ऋषि मुनियो का अनुसंधान )

विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र (ऋषि मुनियो का अनुसंधान )

■ क्रति = सैकन्ड का  34000 वाँ भाग
■ 1 त्रुति = सैकन्ड का 300 वाँ भाग
■ 2 त्रुति = 1 लव ,
■ 1 लव = 1 क्षण
■ 30 क्षण = 1 विपल ,
■ 60 विपल = 1 पल
■ 60 पल = 1 घड़ी (24 मिनट )

■ 2.5 घड़ी = 1 होरा (घन्टा )

■ 24 होरा = 1 दिवस (दिन या वार)

■ 7 दिवस = 1 सप्ताह

■ 4 सप्ताह = 1 माह

■ 2 माह = 1 ऋतू

■ 6 ऋतू = 1 वर्ष

■ 100 वर्ष = 1 शताब्दी

■ 10 शताब्दी = 1 सहस्राब्दी

■ 432 सहस्राब्दी = 1 युग

■ 2 युग = 1 द्वापर युग ,

■ 3 युग = 1 त्रैता युग ,

■ 4 युग = सतयुग

■ सतयुग + त्रेतायुग + द्वापरयुग + कलियुग = 1 महायुग

■ 76 महायुग = मनवन्तर

■ 1000 महायुग = 1 कल्प

■ 1 नित्य प्रलय = 1 महायुग (धरती पर जीवन अन्त और फिर आरम्भ )

■ 1 नैमितिका प्रलय = 1 कल्प ।(देवों का अन्त और जन्म )

■ महाकाल = 730 कल्प ।(ब्राह्मा का अन्त और जन्म )


सम्पूर्ण विश्व का सबसे बड़ा और वैज्ञानिक समय गणना तन्त्र यही है।जो हमारे देश भारत में बना।ये हमारा भारत जिस पर हमको गर्व है l

दो लिंग :नर और नारी।

दो पक्ष :शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष।

दो पूजा : वैदिकी और तांत्रिकी (पुराणोक्त)।

दो अयन : उत्तरायन और दक्षिणायन।


तीन देव : ब्रह्मा, विष्णु, शंकर।

तीन देवियाँ : महा सरस्वती, महा लक्ष्मी, महा गौरी।

तीन लोक : पृथ्वी, आकाश, पाताल।

तीन गुण : सत्वगुण, रजोगुण, तमोगुण।

तीन स्थिति : ठोस, द्रव, वायु।

तीन स्तर : प्रारंभ, मध्य, अंत।

तीन पड़ाव : बचपन, जवानी, बुढ़ापा।

तीन रचनाएँ : देव, दानव, मानव।

तीन अवस्था : जागृत, मृत, बेहोशी।

तीन काल : भूत, भविष्य, वर्तमान।

तीन नाड़ी : इडा, पिंगला, सुषुम्ना।

तीन संध्या : प्रात:, मध्याह्न, सायं।

तीन शक्ति : इच्छाशक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति।

चार धाम : बद्रीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वरम्, द्वारका।

चार मुनि : सनत, सनातन, सनंद, सनत कुमार।

चार वर्ण : ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र।

चार निति : साम, दाम, दंड, भेद।

चार वेद : सामवेद, ॠग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद।

चार स्त्री : माता, पत्नी, बहन, पुत्री।

चार आश्रम : ब्रह्मचर्य, ग्राहस्थ, वानप्रस्थ, सन्यास।

चार भोज्य : खाद्य, पेय, लेह्य, चोष्य।

चार पुरुषार्थ : धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष।

चार वाद्य : तत्, सुषिर, अवनद्व, घन।

पाँच तत्व : पृथ्वी, आकाश, अग्नि, जल, वायु।

पाँच देवता : गणेश, दुर्गा, विष्णु, शंकर, सुर्य।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ : आँख, नाक, कान, जीभ, त्वचा।

पाँच कर्म : रस, रुप, गंध, स्पर्श, ध्वनि।

पाँच उंगलियां : अँगूठा, तर्जनी, मध्यमा, अनामिका, कनिष्ठा।

पाँच पूजा उपचार : गंध, पुष्प, धुप, दीप, नैवेद्य।

पाँच अमृत : दूध, दही, घी, शहद, शक्कर।

पाँच प्रेत : भूत,पिशाच,वैताल,कुष्मांड, ब्रह्मराक्षस।

पाँच स्वाद : मीठा,चर्खा,खट्टा,खारा,कड़वा।

पाँच वायु : प्राण,अपान,व्यान,उदान,समान।

पाँच इन्द्रियाँ :आँख,नाक,कान,जीभ,त्वचा, मन।

पाँच वटवृक्ष : सिद्धवट (उज्जैन),अक्षयवट (प्रयागराज),बोधिवट (बोधगया),वंशीवट (वृंदावन), साक्षीवट (गया)।

पाँच पत्ते : आम, पीपल, बरगद, गुलर, अशोक।

पाँच कन्या : अहिल्या, तारा, मंदोदरी, कुंती, द्रौपदी।

छ: ॠतु : शीत, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, बसंत, शिशिर।

छ: ज्ञान के अंग : शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द, ज्योतिष।

छ: कर्म : देवपूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप, दान।

छ: दोष : काम, क्रोध, मद (घमंड), लोभ (लालच), मोह, आलस्य।


सात छंद : गायत्री, उष्णिक, अनुष्टुप, वृहती, पंक्ति, त्रिष्टुप, जगती।

सात स्वर : सा, रे, ग, म, प, ध, नि।

सात सुर : षडज्, ॠषभ्, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत, निषाद।

सात चक्र : सहस्त्रार, आज्ञा, विशुद्ध, अनाहत, मणिपुर,स्वाधिष्ठान

मुलाधार।

सात वार : रवि, सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि।

सात मिट्टी : गौशाला, घुड़साल, हाथीसाल, राजद्वार, बाम्बी की मिट्टी, नदी संगम, तालाब।

सात महाद्वीप : जम्बुद्वीप (एशिया), प्लक्षद्वीप, शाल्मलीद्वीप, कुशद्वीप, क्रौंचद्वीप, शाकद्वीप, पुष्करद्वीप।

सात ॠषि : वशिष्ठ, विश्वामित्र,

कण्व, भारद्वाज, अत्रि, वामदेव, शौनक।

सात ॠषि : वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, गौतम, विश्वामित्र, भारद्वाज।

सात धातु (शारीरिक) : रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा, वीर्य।

सात रंग : बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल।

सात पाताल : अतल,वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल,पाताल।

सात पुरी : मथुरा, हरिद्वार, काशी, अयोध्या, उज्जैन, द्वारका, काञ्ची।सात धान्य : उड़द, गेहूँ, चना, चांवल, जौ, मूँग, बाजरा।

आठ मातृका : ब्राह्मी, वैष्णवी, माहेश्वरी, कौमारी, ऐन्द्री, वाराही, नारसिंही, चामुंडा।

आठ लक्ष्मी : आदिलक्ष्मी,धनलक्ष्मी, धान्यलक्ष्मी, गजलक्ष्मी,संतानलक्ष्मी,

वीरलक्ष्मी, विजयलक्ष्मी, विद्यालक्ष्मी।

आठ वसु : अप (अह:/अयज), ध्रुव, सोम, धर, अनिल, अनल, प्रत्युष, प्रभास।

आठ सिद्धि : अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व, वशित्व।

आठ धातु : सोना, चांदी, ताम्बा, सीसा जस्ता, टिन, लोहा, पारा।

नवदुर्गा : शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कन्दमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री।

नवग्रह : सुर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, शनि, राहु, केतु।

नवरत्न : हीरा, पन्ना, मोती, माणिक, मूंगा, पुखराज, नीलम, गोमेद, लहसुनिया।

नवनिधि : पद्मनिधि, महापद्मनिधि, नीलनिधि, मुकुंदनिधि, नंदनिधि, मकरनिधि, कच्छपनिधि, शंखनिधि, खर्व/मिश्र निधि।


दस महाविद्या : काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्तिका, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी, कमला।

दस दिशाएँ : पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, आग्नेय, नैॠत्य, वायव्य, ईशान,

ऊपर, नीचे।

दस दिक्पाल : इन्द्र, अग्नि, यमराज, नैॠिति, वरुण, वायुदेव, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा, अनंत।

दस अवतार (विष्णुजी) : मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि।

दस सति :सावित्री,अनुसुइया,मंदोदरी,तुलसी, द्रौपदी, गांधारी,सीता,दमयन्ती,सुलक्षणा, अरुंधती।






Thursday, 29 June 2023

कैसे कार्य करते हैं मंत्र? कैसे और क्यों मंत्रों के जप से आते हैं अन्तर?

🔴मंत्र-शास्त्र🔴

कैसे कार्य करते हैं मंत्र? कैसे और क्यों मंत्रों के जप से आते हैं अन्तर?

ज्योतिष के साथ साथ एक प्रश्न अक्सर लोगों से सुनती हूँ कि मंत्र आदि कैसे काम करते हैं,? क्यों मंत्र जप से ग्रहों के प्रभाव सकारात्मक हो जाते हैं? क्यों मंत्र जप से रोगादि में लाभ मिलता है।
वास्तव में सनातन धर्म, जो कि मैं अक्सर कहती हूँ! वैज्ञानिक धरातल पर सिद्ध नियमों पर आधारित है। 
 इसको किसी एक विषय पर चर्चा करके नही समझा जा सकता है। जैसे अनेकों शिराओं, धमनियों आदि से ये जटिल शरीर बना है। उसी प्रकार अनेक सिद्धान्तों पर आधारित सनातन सभ्यता है। हमारे ऋषि मुनियों जो कि वास्तव में वैज्ञानिक थे उन्होंने इन नियमों को जनमानस के नित्यनियमों से जोड़ा और नित्यनियमों का पालन ही धर्म (duty) कहलाया।

विषय पर आते हैं भाषा की अर्थसम्मत इकाई वाक्य है। वाक्य से छोटी इकाई उपवाक्य, उपवाक्य से छोटी इकाई पदबंध, पदबंध से छोटी इकाई शब्द, शब्द से छोटी इकाई अक्षर और अक्षर की आधारशिला है वर्ण, अक्षर जिसका क्षरण न हो सके अर्थात अ+क्षर, किसी भी प्रकार से उनको नष्ट नही किया जा सकता। और इस अधिकतम न्यूनता की स्थिति को प्राप्त वर्णो/अक्षरों से ही हमारा शब्द विज्ञान शुरू होता है।

व्यंजन 
क वर्ग- क ख ग घ ङ

च वर्ग- च छ ज झ ञ

ट वर्ग- ट ठ ड (ड) ढ (ढ) ण (द्विगुण व्यंजन ड़ ढ़)

त वर्ग- त थ द ध न

प वर्ग- प फ ब भ म

अंतःस्थ- य र ल व

ऊष्म- श ष स ह ( कुल 33 +2 =35)

संयुक्त व्यंजन की कुल संख्या 4 है जो निम्नानुसार हैं।

क्ष- (क् + ष)
त्र- (त् + र)
ज्ञ- (ज+')
श्र- (श् + र)

वर्णों को स्वर व व्यंजन में बांटा गया है।
वो वर्ण जिनके उच्चारण स्वतंत्र होते हैं वे स्वर कहलाते हैं।इनकी संख्या 13 हैं पर उच्चारण पर उच्चारण की शुद्धता देखें तो ये केवल निम्नलिखित 10 हैं।

अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ

वे वर्ण जिनके उच्चारण में आधी सी मात्रा लगती प्रतीत होती है हश्व कहलाते हैं।

अ इ उ

वे वर्ण जिनके उच्चारण में समय दीर्घ/ ज्यादा लगता है वे दीर्घ वर्ण कहलाते हैं।

आ ई ऊ ए ऐ ओ औ ऑ

वे वर्ण जिनके उच्चारणमे दीर्घ से भी अधिक समय लगता है वे प्लूत कहलाते हैं
जैसा कि आपने कई मंत्रों के बीच मे अक्सर एक S जैसा देखा होगा।

ना S S S द

इसी प्रकार जीभ के प्रयोग के आधार पर अग्र, मध्य और पश्च स्वर हुए।

जीभ के पलटने की स्थिति पर संवर्त, अर्धसन्वर्त, अर्ध निवृत व निवृत कहलाये।

ओष्ठों के प्रयोग से आवृतमुखी(होंठ गोलाकार नही होते हैं)और वृतमुखी (होंठ गोलाकार होते है) कहलाये।

बोलते समय हवा के मुख से निकलने पर मौखिक (अ आ इ)व नाक के द्वारा निकलने पर अनुनासिक (आँ, अँ) कहलाये।

अब व्यंजन की बात करते हैं स्वर की सहायता से बोले जाने वाले शब्द व्यंजन कहलाते हैं।
ये 35 होते हैं
जिन्हें इन व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुख के जिस भाग विशेष पर स्पर्श महसूस होता है उस आधार पर व्यंजनों के वर्ग बांटे गए हैं।

कंठ-  क ख ग घ ङ 
(जब बोलते समय कंठ को दबाव स्पर्श होता लगे)

तालू - च छ ज झ 
(जब बोलते समय मुँह के ऊपरी तल का पिछला स्थान स्पर्श हो)

मूर्धा- ट ठ ड ढ 
(जब बोलते समय तालु के आगे की तरफ हवा का स्पर्श अनुभव हो)

दंतव- त थ द ध 
(जब बोलते समय दांतों का प्रयोग अनुभव हो)

ओष्ठ- प फ ब भ 
( इन व्यंजनों के उच्चारण के समय होंठो के प्रयोग अनुभव होते हैं)
इनमे घोष व अघोष, प्राण,अल्पप्राण, महा-प्राण के रूप में व्यंजन को परिभाषित किया गया है। 

उच्चारण के आधार पर भी इन्हें निम्नलिखित भागों में समझाया जाता है।
कंठव्य
तालव्य
मूर्धन्य
वत्सर्य
दंतव्य
दंतोष्ठय
ओष्ठ्य
जिव्हामुलीय
काकल्य

अनुस्वार व विसर्ग महत्वपूर्ण है जो कभी स्वर तो कभी व्यंजन अनुभव होते हैं। परंतु इनका वर्गीकरण न तो स्वर में है ना ही व्यंजन में।

मैं भाषा/शब्द विज्ञान की जानकार नहीं हूं, यहाँ मैंने स्वध्याय से सरल भाषा मे केवल पाठकों के समझने हेतु संक्षेप में वर्णन किया है वैसे व्याकरण और शब्द विज्ञान को समझने के लिए अलग से विस्तृत अध्यन करने की आवश्यकता होगी।
यहाँ इस विवरण को देने का तात्पर्य बस इतना था कि ये वर्णाक्षर के प्रयोग और ध्वनि के साथ साथ इनके प्रयोग में आने वाले मुखांगों का भी वर्गीकरण किया जा सके।
अब एक और लिखना चाहूँगी कि हमारे मुँह के ऊपरी तालू में ही लगभग 84 सूक्ष्म मर्म बिंदु होते हैं जिनमे मंत्रो (वर्णों, स्वर/व्यंजनों  के ये समूह) के द्वारा दाब उत्पन्न होता है और वे  सक्रिय हो जाते हैं। इनसे उत्पन कम्पन्न मष्तिष्क की रासायनिक क्रियाओं में परिवर्तन लाता है जिससे हमारी मानसिक अवस्था,भावनाएं, शारीरिक स्थिती एवं व्यवहार में हम सकारात्मक परिवर्तन अनुभव करने लगते है।
मंत्र अपने आप मे स्वयं एक पूर्ण विज्ञान है यहां पुनः संक्षेप में पाठको के समझने के लिए वर्णन करना सही होगा।
मंत्रो का आधार "बीज मंत्र" हैं। मंत्रो को भी सौम्य, उग्र,शाबर, आदि श्रेणियों में बाँटा गया है। 
चरक संहिता में महर्षि चरक लिखते हैं
यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे
अर्थात ब्रह्मांड का सूक्ष्म स्वरूप या शरीर है जिस प्रकार की प्रक्रिया ब्रह्मांड में होती है वही ब्रह्मण्ड के इस सूक्ष्म स्वरूप में भी अत्यंत सूक्ष्म रूप में स्थान प्राप्त करती है।
 ज्योतिष शास्त्र में भी ब्रह्मांड में विभिन्न ग्रहों के चलायमान होने की प्रक्रिया स्वरूप भेद और परिवर्तन की गणना देखी जाती है। शरीर मे इसकी आवश्यकताओं के आधार पर सकारात्मक परिवर्तन लाने हेतु सम्बंधित विषयों के मंत्रों की सृष्टि की गई। जिनके उच्चारण से और उनमें स्वर व्यंजनों के प्रयोग के माध्यम से  विभिन्न मर्म बिंदुओं को आवश्यकता अनुसार सक्रिय कर के, देह में यथोचित रासायनिक परिवर्तन लाकर उन्हें ब्रह्मांड में होने वाली क्रियाओं की सकारात्मक ऊर्जा से एकाकार किया जा सके।
 इसलिए जब हम आवश्यकता के अनुसार मंत्रों  का प्रयोग कर देवता/ ग्रह की शांति और सकारात्मकता का उपचार करते हैं तब उसके परिणाम दिखाई देते हैं। मंत्रों के प्रयोग से केवल मर्मबिन्दु नहीं बल्कि मुँह होंठो और कभी कभी पूरे शरीर मे एक प्रकार का कम्पन्न ओर ऊर्जा का प्रवाह सा अनुभव होता है। जिसे कि हमारे आभामंडल और शरीर की इलेक्ट्रोमेग्नेटिक ऊर्जा को मंत्र/सम्बंधित ग्रह/ऊर्जा के प्रकार से सामंजस्य बिठाने का संकेत समझा जाना चाहिए।
 हाँ कई बार जब आपका शरीर उस ऊर्जा को अवशोषित करने के योग्य नही होता और आप तीव्र/उग्र मंत्रो को बिना गुरु सानिध्य/ पूर्व अनुभव अथवा शरीर को तैयार किये बिना प्रयोग करते हैं तो जरूर अनचाहे अनुभव होते हैं।
 जोकि मंत्र विज्ञान की विशालता और उसके प्रयोग विधि के महत्व बारे में बताते हैं।

Wednesday, 28 June 2023

लक्ष्मण रेखा का क्या महत्व है

लक्ष्मण रेखा....

लक्ष्मण रेखा आप सभी जानते हैं पर इसका असली नाम शायद नहीं पता होगा । लक्ष्मण रेखा का नाम (सोमतिती विद्या है) 

यह भारत की प्राचीन विद्याओ में से जिसका अंतिम प्रयोग महाभारत युद्ध में हुआ था  चलिए जानते हैं अपने प्राचीन भारतीय विद्या को

सोमतिती विद्या लक्ष्मण रेखा..

महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है--सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति,,

यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है,, वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है,, कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है,,

जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा--राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है??महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है-इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है,,
 यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा,, यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है,,उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी,,

महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में,,महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में,, महर्षि भारद्वाज के यहां,, और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था,, एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानकार था

सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति--इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन 

आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है,,फिर उस यंत्र को एक्टिवेट करें और उसकी मदद से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें,,उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा,, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो,,ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने जानकर हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी

महर्षि दधीचि,, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे,श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे,,उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी,, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे,,

मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के Jaलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई,,जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए, परमेश्वर सद्बुद्धि दे हम सबको.....

जय श्रीराम, जय गोविंदा ✨🕉️🙏💖

Tuesday, 27 June 2023

शिवलिंग के साथ सदैव नंदी एवं कछुआ क्यों होता है ?

एक कछुए का शिव के मंदिरों में प्रेरित करने के लिए एक प्रतीकात्मक महत्व है और वो है उनकी साधना। एक कछुआ अपने सभी अंगों और सिर को वापस लेने की क्षमता रखता है पूरी तरह से यह खोल के भीतर है।
यह प्रतीकात्मक रूप से एक आध्यात्मिक प्रेरणा देता है। भौतिक जगत से अपनी सभी इंद्रियों को वापस लेने की आकांक्षा।  जब एक कछुआ अंडे देता है तो उनके शीर्ष पर नहीं बैठती है बल्कि उन्हें केंद्रित करती है। लगातार उनकी ओर ध्यान देकर अपनी आंखों से ऊर्जा निकालकर अंडे सेती है।
यह आध्यात्मिक आकांक्षी को अपने सभी ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करता है ध्यान से भगवान शिव की ओर ध्यान दें।
मंदिर में एक कछुए के प्रतीकात्मक उपयोग द्वारा शिवलिंग या चित्र पर ध्यान केंद्रित करने वाले 'दर्शन' का भी महत्व है।
इसके अलावा शिव मंदिरों में एक बैल को भी देखा जाता है यह शिव का वाहन 'नंदी' है। शिवलिंग के सामने बैठे नंदी का संकेत है कि मनुष्य को मोह माया से दूर हो जाना चाहिए और अपना सारा ध्यान केवल भगवान की ओर लगाना चाहिए।
बैल चार पैरों पर बैठे स्थिरता का प्रतीक है, जो सत्य (सत्य) (धर्म) (शांति) (प्रेम) का प्रतिनिधित्व करता है।

क्या आप जानते है? हिंदू संस्कृति के मुख्य तत्व:क्या है?

1. धर्म (Religion)... हिंदू धर्म, जिसे "सनातन धर्म" भी कहा जाता है, हिंदू संस्कृति का केंद्र बिंदु है। इसमें ईश्वर के ...