🔴मंत्र-शास्त्र🔴
कैसे कार्य करते हैं मंत्र? कैसे और क्यों मंत्रों के जप से आते हैं अन्तर?
ज्योतिष के साथ साथ एक प्रश्न अक्सर लोगों से सुनती हूँ कि मंत्र आदि कैसे काम करते हैं,? क्यों मंत्र जप से ग्रहों के प्रभाव सकारात्मक हो जाते हैं? क्यों मंत्र जप से रोगादि में लाभ मिलता है।
वास्तव में सनातन धर्म, जो कि मैं अक्सर कहती हूँ! वैज्ञानिक धरातल पर सिद्ध नियमों पर आधारित है।
इसको किसी एक विषय पर चर्चा करके नही समझा जा सकता है। जैसे अनेकों शिराओं, धमनियों आदि से ये जटिल शरीर बना है। उसी प्रकार अनेक सिद्धान्तों पर आधारित सनातन सभ्यता है। हमारे ऋषि मुनियों जो कि वास्तव में वैज्ञानिक थे उन्होंने इन नियमों को जनमानस के नित्यनियमों से जोड़ा और नित्यनियमों का पालन ही धर्म (duty) कहलाया।
विषय पर आते हैं भाषा की अर्थसम्मत इकाई वाक्य है। वाक्य से छोटी इकाई उपवाक्य, उपवाक्य से छोटी इकाई पदबंध, पदबंध से छोटी इकाई शब्द, शब्द से छोटी इकाई अक्षर और अक्षर की आधारशिला है वर्ण, अक्षर जिसका क्षरण न हो सके अर्थात अ+क्षर, किसी भी प्रकार से उनको नष्ट नही किया जा सकता। और इस अधिकतम न्यूनता की स्थिति को प्राप्त वर्णो/अक्षरों से ही हमारा शब्द विज्ञान शुरू होता है।
व्यंजन
क वर्ग- क ख ग घ ङ
च वर्ग- च छ ज झ ञ
ट वर्ग- ट ठ ड (ड) ढ (ढ) ण (द्विगुण व्यंजन ड़ ढ़)
त वर्ग- त थ द ध न
प वर्ग- प फ ब भ म
अंतःस्थ- य र ल व
ऊष्म- श ष स ह ( कुल 33 +2 =35)
संयुक्त व्यंजन की कुल संख्या 4 है जो निम्नानुसार हैं।
क्ष- (क् + ष)
त्र- (त् + र)
ज्ञ- (ज+')
श्र- (श् + र)
वर्णों को स्वर व व्यंजन में बांटा गया है।
वो वर्ण जिनके उच्चारण स्वतंत्र होते हैं वे स्वर कहलाते हैं।इनकी संख्या 13 हैं पर उच्चारण पर उच्चारण की शुद्धता देखें तो ये केवल निम्नलिखित 10 हैं।
अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ
वे वर्ण जिनके उच्चारण में आधी सी मात्रा लगती प्रतीत होती है हश्व कहलाते हैं।
अ इ उ
वे वर्ण जिनके उच्चारण में समय दीर्घ/ ज्यादा लगता है वे दीर्घ वर्ण कहलाते हैं।
आ ई ऊ ए ऐ ओ औ ऑ
वे वर्ण जिनके उच्चारणमे दीर्घ से भी अधिक समय लगता है वे प्लूत कहलाते हैं
जैसा कि आपने कई मंत्रों के बीच मे अक्सर एक S जैसा देखा होगा।
ना S S S द
इसी प्रकार जीभ के प्रयोग के आधार पर अग्र, मध्य और पश्च स्वर हुए।
जीभ के पलटने की स्थिति पर संवर्त, अर्धसन्वर्त, अर्ध निवृत व निवृत कहलाये।
ओष्ठों के प्रयोग से आवृतमुखी(होंठ गोलाकार नही होते हैं)और वृतमुखी (होंठ गोलाकार होते है) कहलाये।
बोलते समय हवा के मुख से निकलने पर मौखिक (अ आ इ)व नाक के द्वारा निकलने पर अनुनासिक (आँ, अँ) कहलाये।
अब व्यंजन की बात करते हैं स्वर की सहायता से बोले जाने वाले शब्द व्यंजन कहलाते हैं।
ये 35 होते हैं
जिन्हें इन व्यंजनों का उच्चारण करते समय मुख के जिस भाग विशेष पर स्पर्श महसूस होता है उस आधार पर व्यंजनों के वर्ग बांटे गए हैं।
कंठ- क ख ग घ ङ
(जब बोलते समय कंठ को दबाव स्पर्श होता लगे)
तालू - च छ ज झ
(जब बोलते समय मुँह के ऊपरी तल का पिछला स्थान स्पर्श हो)
मूर्धा- ट ठ ड ढ
(जब बोलते समय तालु के आगे की तरफ हवा का स्पर्श अनुभव हो)
दंतव- त थ द ध
(जब बोलते समय दांतों का प्रयोग अनुभव हो)
ओष्ठ- प फ ब भ
( इन व्यंजनों के उच्चारण के समय होंठो के प्रयोग अनुभव होते हैं)
इनमे घोष व अघोष, प्राण,अल्पप्राण, महा-प्राण के रूप में व्यंजन को परिभाषित किया गया है।
उच्चारण के आधार पर भी इन्हें निम्नलिखित भागों में समझाया जाता है।
कंठव्य
तालव्य
मूर्धन्य
वत्सर्य
दंतव्य
दंतोष्ठय
ओष्ठ्य
जिव्हामुलीय
काकल्य
अनुस्वार व विसर्ग महत्वपूर्ण है जो कभी स्वर तो कभी व्यंजन अनुभव होते हैं। परंतु इनका वर्गीकरण न तो स्वर में है ना ही व्यंजन में।
मैं भाषा/शब्द विज्ञान की जानकार नहीं हूं, यहाँ मैंने स्वध्याय से सरल भाषा मे केवल पाठकों के समझने हेतु संक्षेप में वर्णन किया है वैसे व्याकरण और शब्द विज्ञान को समझने के लिए अलग से विस्तृत अध्यन करने की आवश्यकता होगी।
यहाँ इस विवरण को देने का तात्पर्य बस इतना था कि ये वर्णाक्षर के प्रयोग और ध्वनि के साथ साथ इनके प्रयोग में आने वाले मुखांगों का भी वर्गीकरण किया जा सके।
अब एक और लिखना चाहूँगी कि हमारे मुँह के ऊपरी तालू में ही लगभग 84 सूक्ष्म मर्म बिंदु होते हैं जिनमे मंत्रो (वर्णों, स्वर/व्यंजनों के ये समूह) के द्वारा दाब उत्पन्न होता है और वे सक्रिय हो जाते हैं। इनसे उत्पन कम्पन्न मष्तिष्क की रासायनिक क्रियाओं में परिवर्तन लाता है जिससे हमारी मानसिक अवस्था,भावनाएं, शारीरिक स्थिती एवं व्यवहार में हम सकारात्मक परिवर्तन अनुभव करने लगते है।
मंत्र अपने आप मे स्वयं एक पूर्ण विज्ञान है यहां पुनः संक्षेप में पाठको के समझने के लिए वर्णन करना सही होगा।
मंत्रो का आधार "बीज मंत्र" हैं। मंत्रो को भी सौम्य, उग्र,शाबर, आदि श्रेणियों में बाँटा गया है।
चरक संहिता में महर्षि चरक लिखते हैं
यथा ब्रह्माण्डे तथा पिण्डे
अर्थात ब्रह्मांड का सूक्ष्म स्वरूप या शरीर है जिस प्रकार की प्रक्रिया ब्रह्मांड में होती है वही ब्रह्मण्ड के इस सूक्ष्म स्वरूप में भी अत्यंत सूक्ष्म रूप में स्थान प्राप्त करती है।
ज्योतिष शास्त्र में भी ब्रह्मांड में विभिन्न ग्रहों के चलायमान होने की प्रक्रिया स्वरूप भेद और परिवर्तन की गणना देखी जाती है। शरीर मे इसकी आवश्यकताओं के आधार पर सकारात्मक परिवर्तन लाने हेतु सम्बंधित विषयों के मंत्रों की सृष्टि की गई। जिनके उच्चारण से और उनमें स्वर व्यंजनों के प्रयोग के माध्यम से विभिन्न मर्म बिंदुओं को आवश्यकता अनुसार सक्रिय कर के, देह में यथोचित रासायनिक परिवर्तन लाकर उन्हें ब्रह्मांड में होने वाली क्रियाओं की सकारात्मक ऊर्जा से एकाकार किया जा सके।
इसलिए जब हम आवश्यकता के अनुसार मंत्रों का प्रयोग कर देवता/ ग्रह की शांति और सकारात्मकता का उपचार करते हैं तब उसके परिणाम दिखाई देते हैं। मंत्रों के प्रयोग से केवल मर्मबिन्दु नहीं बल्कि मुँह होंठो और कभी कभी पूरे शरीर मे एक प्रकार का कम्पन्न ओर ऊर्जा का प्रवाह सा अनुभव होता है। जिसे कि हमारे आभामंडल और शरीर की इलेक्ट्रोमेग्नेटिक ऊर्जा को मंत्र/सम्बंधित ग्रह/ऊर्जा के प्रकार से सामंजस्य बिठाने का संकेत समझा जाना चाहिए।
हाँ कई बार जब आपका शरीर उस ऊर्जा को अवशोषित करने के योग्य नही होता और आप तीव्र/उग्र मंत्रो को बिना गुरु सानिध्य/ पूर्व अनुभव अथवा शरीर को तैयार किये बिना प्रयोग करते हैं तो जरूर अनचाहे अनुभव होते हैं।
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