गोवर्धन परिक्रमा का क्या महत्त्व है?
गोवर्धन पर्वत जिसे गिरिराजजी के नाम से भी जाना जाता है. माना जाता है की गिरिराजजी के १०० शिखर है और उस कारण उन्हें शतशृंगि भी कहा जाता है. गिरिराज पर्वत का उद्धभव भारत खंड के पश्चिम में आये श्यामली द्वीप (अफ्रीका) में सारस्वत कल्प के समय हुआ था. उनके पिता द्रोणागिरी पर्वत थे।
एक समय ऋषि पुलत्स्य (जो रावण के दादा थे) वह विचरण करते द्रोणागिरी पर्वत के पास पहुंचे और उनसे विनती की मुझे आपके पुत्र की स्थापना काशी नगरी में करके उसकी कंदरा में तपस्चर्या करनी है।
जब द्रोणागिरी ने यह बात अपने पुत्र गोवर्धन को बताई तब उन्हों ने कहा की मै तो २ योजन ऊँचा और ५ योजन चौड़ा हु , तब पुलत्स्य ऋषि ने कहा मै तुम्हे अपने योगबल से उठा के जाऊंगा. अब यह तो गोवर्धनजी को पता था की मेरा स्थान काशी नहीं परन्तु व्रजभूमि है. उन्हों ने ऋषि को एक शरत रखी की आप मुझे काशीनगरी से पहले कहा पे भी नहीं रखोगे नहीं तो मै वही स्थायी हो जाऊंगा।
जब ऋषि गोवर्धनजी को व्रज मंडल के ऊपर से ले जा रहे थे तब उनको अपने स्वस्वरूप का ज्ञान हुआ और समजा के मेरा स्थान व्रज मंडल है काशीनगरी नहीं । उन्हों ने अपना वज़न खूब बढ़ा दिया और ऋषि को उनको मजबूरन व्रज मंडल में रखना पड़ा ।
ऋषि ने क्रोधित होकर गोवर्धन को श्राप दिया की तुम हर रोज़ एक तिल के बराबर धरती में समाते जायेगा । गोवेर्धनजी ने यह हरी इच्छा समज श्राप का सन्मान किया।
युगो पश्यात वैवस्वत मन्वन्तर के द्वापर युग मे कंसके कारागार में भगवान श्री कृष्ण का जन्मा हुआ और उन्हें मथुरा से गोकुल नंदराय के घर लाया गया ।
अपनी सभी लीला करते भगवान् श्री कृष्ण ७ साल के हुए । उस समय वृजवासिओ में एक परंपरा थी की वर्षा ऋतु के अंत पर जब नवधान्य आता है तब इंद्रदेव को प्रसन्न करने इन्द्रयाग का आयोजन करते थे।
बाल कनैया ने नंदरायजी से पूछा हम यह यज्ञ क्यों कर रहे है ? तब नंदरायजी ने समझाया की इंद्र देवताओ के राजा है वह जो पानी बरसाते है उनसे यहाँ धान्य का उत्पादन होता है और जो घास उगता है उससे पानी गायोंका पोषण होता है और हम इंद्र के प्रति अपना आदर व्यक्त करने यह यज्ञ करते है।
उस बात पर कृष्ण ने हसके कहा अपना सुख और दुःख हमे अपने कर्मो से मिलता है पर हमे विशेष सुख गोवर्धन पर्वत के द्वारा मिल रहा है वही अपनी कंदराओं में हमे विश्राम देता है वही अपने वृक्षों से हमें छाव देता है और यहाँ स्थित जलकुण्डों से हमे पानी मिलता है । गिरिराज गोवर्धन ही हमारे जागृत देवता है , अगर आपको यज्ञ करना ही है तो गिरिराज गोवेर्धन का करो. उन्हें भोग लगाओ तो हम सुखी रहेंगे
एतन्मम मतं तात किर्यता यदि रोचते
अयं जो ब्राह्मणाद्रीणाम मह्यं च दयितो मखः
(श्रीमद भगवत - दशम स्कंध - २४ -३० )
" पिताजी यह मेरा मत है अगर आपका मन मानता है तो करिये मुझे गाय ब्राह्मण और गिरिराजजी को लक्ष्य में रख के किया जाने वाला यज्ञ पसंद है , मेरा यह मानना है"
अगर हम इंद्रपूजा को छोड़के गोवेर्धनपूजा की प्रणालिका शुरू करेंगे तो हम अत्यंत सुखी होंगे ।
दीपावली के दिन सभी वृजवासी गिरिराज की तलहटी ने पहुंचे और मानसी गंगा के जल एवम अपनी गायो के दूध से गिरिराजजी का अभिषेक किया।
उपहयुत बलिनसर्वाना द्यता यवसं गवाम
गोधनानी पुरष्कृत्यं गिरीं चक्रुः प्रदक्षिणम
(श्रीमद भगवत - दशम स्कंध - २४ -३३ )
श्री कृष्ण ने प्रथम ब्राह्मणो से स्वस्ति वाचन करवा के गया को हरा चारा खिला के पूजन किया और फिर नन्दबावा और गायो को आगे रख गिरिराजजी की परिक्रमा की
तत्पश्यात श्री कृष्ण ने गिरिराजजी पे अपना विशाल स्वरुप दिखाया और गर्जना की " शैलोस्मि - गिरिराजोस्मि " मै ही गिरिराज हु ।
कृष्णसत्वंन्यतमं रूपं गोपविश्रम्भनं गतः
शैलोस्मिति ब्रुवन भूरि बलिमादद बृहदवपु
(श्रीमद भगवत - दशम स्कंध - २४ -३५ )
सभी वृजवासिओ को कृष्ण नए देव गिरिराजजी की पहचान कराई ।
जब वृजवासिओ ने पूछा की क्या हम यह नए देव गिरिराजजी के पास मांग सकते है तब कनैया ने कहा की आप सच्चे हृदयसे एवम दीनता से गिरिराजजी की शरण में जाओगे तो यह कृपालु देव आपकी सर्व मनोकामना पूरी करेंगे
तत्पश्यात इंद्र के प्रकोप से सभी वृजवासिओ का गोवर्धन का धारण करके श्री कृष्ण ने इंद्र के गर्व का दमन किया और एक नयी परंपरा को जन्म दिया
तदुपरांत श्रीमद भागवत के दशम स्कंध में वेणुगीत में गोपिया कहती है की यह गिरिराजजी गोवेर्धन हरिदासवर्य (प्रभु के सेवको में श्रेष्ठ ) है
(श्रीमद भगवत - दशम स्कंध - २१ -१८ )
उपरोक्त व्याख्यान से यह प्रतिपादित होता है की
१. गिरिराज गोवेर्धन का प्रागट्य एवं श्यामली द्वीप से वृजमण्डल में आना वह भगवद कृपा का संकेत है
२. गिरिराजजी की पूजा यह गौपूजा का महत्व समजती है
३. तथाकथित परम्परा को छोड़ के नयी बुद्धिगम्य प्रथाओं का जन्म यह गोवर्धन पूजा का फल है
४. यहाँ स्वयं श्री कृष्ण ने कहा है की अगर मांगना है यह देव के पास ही तो मांगना है और आप मांगोगे तो यह देव गिरिराजजी आपकी मनोकामना पूर्ण करेगा यह मेरा वचन है
५. श्री कृष्ण ही सवयं गिरिराजजी का सवरूप है
६. श्री कृष्ण ने भी गिरिराजजी की परिक्रम्मा की है
७. गिरिराज गोवेर्धन हरिदासवर्य (प्रभु के सेवको में श्रेष्ठ ) है
सर्व हिन्दुओ के लिए श्री कृष्ण स्वरुप हरिदासवर्य गिरिराज गोवर्धन की पूजा और परिक्रम्मा का अत्यंत महत्व है
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